गुरुवार, 4 नवंबर 2021

शिक्षण और कक्षा प्रक्रिया (Teacher-Teaching-Classroom Processe)

 

 शिक्षण : तैयारी से कक्षा तक

 

परिचय

एक सम्पूर्ण शिक्षण चक्र को ध्यान से देखा जाए तो इसके तीन हिस्से नज़र आते हैं. पहले हिस्से को शिक्षण कार्य से  पूर्व की तैयारी, दूसरे हिस्से को शिक्षण कार्य (प्रक्रिया) तथा तीसरे हिस्से को ‘चिंतनशील सोच’ के रूप में देखना. (यहाँ आकलन को शिक्षण प्रक्रिया के  हिस्से  के रूप में देखा गया है) शिक्षण कार्य  की पूर्व तैयारी को सामान्य ढंग से देखने से तो सिर्फ यह दिखाई पड़ता है कि विषयगत पाठ जिसको पढ़ाना है, को एक बार ध्यान से पढ़ लिया जाए. ज्यादातर शिक्षक ऐसा ही करते हैं जबकि कुछ शिक्षक तो इसे भी जरूरी नहीं समझते. यदि हम शिक्षण को एक कौशल के रूप में देखें तो इसकी ‘तैयारी और इसका अभ्यास’ महत्वपूर्ण हो जाता है. यहाँ अभ्यास से आशय हैं शिक्षण कार्य को करते हुए उसमें निखार लाना. ऐसा संभव नहीं है कि पहले इसका अभ्यास कर लिया जाए फिर बाद में शिक्षण कार्य को प्रारम्भ करें. जिस तरह तैरना सीखने के लिए तैरना अनिवार्य शर्त है उसी तरह शिक्षण में पारंगत होने की अनिवार्य शर्त है शिक्षण कार्य में स्वयं को लिप्त करना और ऐसा करके ही शिक्षण कार्य में पारंगतता हासिल किया जा सकता है. बहरहाल किसी भी विषय में शिक्षण कार्य की तैयारी  तीन तरह के प्रश्न पूछते हुये की जा सकती है-

·        शिक्षा के क्या उद्देश्य हैं? जो मूलतः इससे निर्धारित होते हैं कि किस प्रकार का समाज हमें चाहिए?

·        जिस विषय का शिक्षण कार्य किया जाना है उस विषय को पढ़ाने के क्या उद्देश्य हैं? उस विषय के माध्यम से बच्चों में किन कौशलों व क्षमताओं का विकास किया जाना है? (इसे सहूलियत के लिए ‘विषयगत उद्देश्य’ कह सकते हैं)

·        विषयगत उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए किस विषयवस्तु को माध्यम बनाया गया है? किस विषयवस्तु पर समझ बनाने की कोशिश की गयी है? (इसे सहूलियत के लिए पाठगत उद्देश्य कह सकते हैं)

शिक्षण की पूर्व तैयारी

सबसे पहले शिक्षा के उद्देश्यों को शिक्षण कार्य के पूर्व तैयारी के रूप देखते हैं. इसके लिए स्कूल और समाज के मध्य सम्बन्ध तथा शिक्षा के संवैधानिक मूल्यों पर विचार करना महत्वपूर्ण हो सकता है. हम किस प्रकार का समाज स्थापित / विकसित करना चाहते हैं. इस प्रकार के शैक्षिक लक्ष्यों में जिस पर लगातार लम्बे समय तक कार्य करने के बाद ही कह सकते हैं कि हम उस शैक्षिक लक्ष्य तक पहुँच पाए या नहीं. उदाहरण के लिए यदि हमारा शैक्षिक लक्ष्य ‘न्याय पर आधारित समाज की स्थापना’ करना है तो हमें सबसे पहले यह समझना होगा कि न्याय से हमारा आशय क्या है. क्या जाति, धर्म, लिंग में भेद किए बिना सबके अधिकारों की रक्षा करना न्याय है? क्या ऐसे समाज को देखना जहां शान्ति डर एवं भय से नहीं बल्कि एक दूसरे के अधिकारों का सम्मान करते हुए समाज में शान्ति स्थापित करना है? ऐसे कई तरीकों से हमें न्याय को परिभाषित करना होगा. उसके बाद हमें इस पर विचार करना होगा कि  जितनी देर कक्षा में बच्चों के साथ अंतर्क्रिया होगी उसमें  शिक्षक का व्यवहार कैसा होगा, उसे किन-किन बातों को ध्यान रखना होगा। ऐसे अन्य कई पहलुओं पर भी  विचार करना होगा. जैसे शिक्षक और बच्चों के मध्य या बच्चों और बच्चों के मध्य की अंतर्क्रिया में कहीं जाति, धर्म, लिंग आधारित भेदभाव पूर्ण व्यवहार (अनजाने में भी) तो नहीं हो रहा है.  आम तौर पर एक शिक्षक पाठ्यक्रम के सभी घटकों को ध्यान नहीं रखता. वे किसी विषयवस्तु पर कार्य करते हुए शिक्षा के सामान्य उद्देश्यों को अनजाने में ही सही,  भूल जाते हैं और उन्हें कक्षा में स्थान नहीं दे पाते. जैसे जब कोई शिक्षक ‘नक्शा पढ़ना’ सिखा रहा होता है तो पूरा ध्यान नक़्शे का ‘पठन कौशल’ को विकसित करना मुख्य उद्देश्य हो जाता है जबकि शिक्षण के हर क्षण हमें शिक्षा के सामान्य उद्देश्यों (जिसके लिए शिक्षा तंत्र विकसित हुआ है) को जो लम्बे समय अंतराल के बाद पूरा होना होता है, को भी अवश्य ध्यान में रखा जाना चाहिए. उदाहरण के लिए यहाँ यह देखा जाना महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या बच्चे नक़्शे का ‘पठन कौशल’ का उपयोग एक-दूसरे से सहयोगात्मक  ढंग से सीखने में कर रहे हैं या नहीं. यही ‘सहयोग की भावना’ वयस्क समाज को वांछित समाज की और ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है. इस प्रकार शिक्षण की पहली तैयारी में शिक्षा के सामान्य उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए कैसे कार्य किया जाना होगा पर गंभीरता पूर्वक विचार कर लेना चाहिए.

विषयगत उद्देश्य

अभी  हमने शिक्षण की तैयारी के लिए उठाए गए तीन प्रश्नों में से पहला प्रश्न ‘शिक्षा के क्या उद्देश्य है’ पर कुछ उदाहरणों के साथ विचार करने का प्रयास किया है. अब हम इसके दूसरे प्रश्न ‘जिस विषय का शिक्षण कार्य किया जाना है उसकी प्रकृति क्या है तथा उस विषय को पढ़ाने के क्या उद्देश्य हैं? इस विषय के माध्यम से बच्चों में किन कौशलों व क्षमताओं का विकास किया जाना है? जिसे हमने सहूलियत के लिए विषयगत उद्देश्य का नाम दिया है, पर विचार करते हैं कि आखिर विषयगत उद्देश्य के तहत शिक्षण की क्या तैयारी की जा सकती है. जैसे गणित पढ़ाने का उद्देश्य हो सकता है बच्चों में तार्किक क्षमता का विकास करना, अपने दैनिक जीवन की समस्याओं को गणितीय ढंग से सुलझा पाना आदि. भाषा पढ़ाने का उद्देश्य हो सकता है कि बच्चे स्वतंत्र रूप से विचार कर सकें, अपनी बातों को निर्भीकता से दूसरों के समक्ष रख सके आदि. इसी तरह सामाजिक विज्ञान को पढ़ाने का उद्देश्य हो सकता है कि बच्चे समाज में घट रही विभिन्न घटनाओं के मध्य संबंधों को देख सके. विज्ञान का उद्देश्य हो सकता है कि बच्चों में वैज्ञानिक सोच पैदा हो. इन्हीं सब उद्देश्यों के आधार पर कक्षागत अभ्यास का नियोजन करना शिक्षण का महत्वपूर्ण पहलू हो सकता है, जिसके आधार पर कक्षा में की जाने वाली गतिविधियों को दिशा प्रदान की जा सकती है, सहायक शिक्षण सामग्री का विवेक सम्मत उपयोग सुनिश्चित किया जा सकता है. सामाजिक विज्ञान में इतिहास, राजनीतिशास्त्र एवं भूगोल जैसे विषयों को समाहित किया जाता है. आगे अपनी बात को बढ़ाने के लिए भूगोल विषय के अनेक उद्देश्यों में से एक बृहद उद्देश्य ‘विभिन्न घटनाओं के मध्य आपसी संबंधों को समझना’ को एक उदाहरण के रूप में ले सकते हैं- जैसे किसी स्थान की धरातलीय संरचना का वहाँ होने वाली वर्षा की मात्रा के साथ क्या सम्बन्ध होते हैं तथा वर्षा का वहाँ होने वाली फसलों के साथ क्या सम्बन्ध होंगे अर्थात वहाँ किस तरह की फसलें उगाई जाती है? आदि. इसी तरह कुछ कौशलों का विकास करना भी इस विषय का एक महत्वपूर्ण विषयगत उद्देश्य है. उदाहरण के लिए ‘नक्शा पठन’ का कौशल. यदि हमारा भूगोल पढ़ाने का ‘विषयगत’ उद्देश्य बच्चों में नक़्शे का पठन कौशल विकसित करना है तो हमारी कक्षा संचालन की तैयारी में विभिन्न देशों (स्तरानुसार) के नक़्शे को मुख्य शिक्षण सामग्री के रूप में चयन करना होगा. यह देखना होगा कि बच्चों के लिए लिखी गयी पाठ्य पुस्तकों में मुद्रित नक़्शे का उपयोग किस तरह से हो. नक़्शे पढ़ने के सभी आवश्यक घटकों (दिशा, पैमाने, संकेत चिन्ह, रंग आदि) पर बच्चों में समझ विकसित करने संबंधी गतिविधियों का नियोजन करना होगा. यह भी सुनिश्चित करना होगा कि इस पठन कौशल को विकसित करने के लिए बच्चों को व्यक्तिगत कार्य करने का अवसर, जोड़ी में कार्य करने का अवसर एवं समूह में कार्य करने का अवसर कहाँ-कहाँ व किस तरह देना होगा / दिया जा सकता है. इस प्रकार विषयगत उद्देश्य यह तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है कि कक्षा संचालन की तैयारी किस तरह की जानी चाहिए.

पाठगत उद्देश्य – विषयवस्तु

अब हम शिक्षण की तैयारी के लिए उठाए गए तीन प्रश्नों में से तीसरा एवं अंतिम प्रश्न ‘विषयगत उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए किस विषयवस्तु को माध्यम बनाया गया है? किस विषयवस्तु पर समझ बनाने की कोशिश की गयी है?’ पर विचार करते हैं. जैसा कि प्रश्न में ही कहा गया है कि विषयगत उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए किस ‘विषयवस्तु’ को माध्यम बनाया गया है? यहाँ हम भूगोल विषय में ‘अफ्रीका महाद्वीप’ को पाठगत विषयवस्तु (माध्यम) के रूप लेते हुए अपनी बात को आगे बढ़ाने की कोशिश करते हैं. इस विषयवस्तु में निश्चित ही विषयगत उद्देश्य ‘नक़्शे का पठन कौशल’ तो है ही पर साथ में यह समझ भी विकसित करना अवश्यम्भावी हो जाता है कि बच्चे अफ्रीका महाद्वीप की भौतिक संरचना को इस आशय के साथ समझे कि यह वहाँ के जलवायु, वर्षा, जनजीवन आदि को किस तरह प्रभावित करता है. इस तरह ये सभी इसके पाठगत उद्देश्य कहे जायेंगे. अतः इन पाठगत उद्देश्यों को ध्यान में रखकर कक्षा की गतिविधियों को दिशा देना होगा. जैसे बच्चों को यह अवसर देना कि सभी बच्चे व्यक्तिगत कार्य के रूप में नक़्शे का पठन कौशल का उपयोग करते हुए अफ्रीका महाद्वीप के भौतिक भागों का वर्णन करें, इसे जोड़ी में या छोटे-छोटे समूहों में कार्य कराने की लिए भी गतिविधियों का नियोजन की जा सकती है. यहाँ शिक्षक की स्वायत्तता है कि विषयवस्तु पर कार्य करने की तैयारी किस प्रकार करता है.

शिक्षण प्रक्रिया

इस लेख के प्रारम्भ में ही हमने ‘शिक्षण चक्र’ शब्द का उपयोग किया है और इस चक्र के पहले हिस्से के रूप में ‘शिक्षण कार्य के पूर्व तैयारी, पर काफी बातचीत कर चुके हैं. अब हम इस चक्र के दूसरे हिस्से ‘शिक्षण कार्य (प्रक्रिया)’ पर बात करते हैं, अर्थात अब हम उपरोक्त तैयारी के बाद कक्षा में शिक्षण कार्य के लिए प्रवेश करते हैं. जब हम कक्षा में प्रवेश करते हैं तो हमें सबसे पहले जिस पर विचार करना श्रेयस्कर हो सकता है वह है – ‘कक्षा का वातावरण’।  यह सर्वमान्य है कि बच्चों का अच्छा सीखना एक कक्षा के अच्छे वातावरण में संभव होता है. यहाँ अच्छा वातावरण से आशय एक ऐसे स्थल से है जहां बच्चों का देखभाल होता हो वह भी लिंग-जाति-धर्म-सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि पर भेदभाव किए बिना. एक ऐसा स्थल जहां शिक्षक और बच्चों के मध्य तथा बच्चों-बच्चों के मध्य अंतर्क्रिया करने का पूरा अवसर उपलब्ध होता हो. जहां बच्चे यह उम्मीद करते हों कि शिक्षक उन्हें सीखने के सभी गतिविधियों में शामिल करेंगे. जहां बच्चों के अनुभव एवं पूर्व ज्ञान का सम्मान किया जाता हो. जहां बच्चे बिना डर-भय के अपनी बात कक्षा में रख सकते हों. जहां बच्चों द्वारा त्रुटियों को सीखने की सीढ़ी के रूप में देखा जाता हो. जहां बच्चे एक दूसरे के सहयोग को सीखने की प्रक्रिया में शामिल करते हों.

अब बारी आती है शिक्षक के द्वारा अपने पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार कक्षा के  संचालन की. कक्षा संचालन के दौरान की जाने वाली अनेक गतिविधियों को मुख्य रूप से दो भागों में रखा जा सकता है. एक वे गतिविधियां जिन्हें सीधे शैक्षिक प्रक्रिया के रूप में देख सकते हैं और एक वे जिन्हें कक्षा में आवश्यक परिस्थितियाँ  उत्पन्न करने के लिए काम में लाते हैं. बच्चों को गतिविधियों के अनुरूप बिठाना, पुस्तक खोलने के लिए कहना, शार्पनर से पेन्सिल में धार करने के लिए कहना, बच्चों से चाक मंगवाना आदि ऐसे  कुछ काम  हैं जिन्हें हम शिक्षण की विशिष्ट गतिविधियाँ नहीं कह सकते बल्कि   बच्चों द्वारा आपस में किसी मुद्दे पर चर्चा करने, खोज करने, शिक्षक के द्वारा किसी विषय पर व्याख्यान देने जैसी  गतिविधियों को विशिष्ट शैक्षिक गतिविधियों के रूप में देखा जा सकता है. कक्षा संचालन की इन गतिविधियों में पढ़ाये जाने वाले विषय के लिए बच्चों के पूर्व ज्ञान को टटोलना, उन्हें उनके पूर्व ज्ञान को व्यक्त करने का अवसर देना भी  महत्वपूर्ण  है. कक्षा संचालन के दौरान शिक्षण सहायक सामग्री के उपयोग के बारे में बहुत सी भ्रांतियां शिक्षकों में अभी भी मौजूद है. जैसे भूगोल में ग्लोब की समझ पर आधारित पाठ में पूरी  कक्षा के लिए सिर्फ ‘एक’ ग्लोब का उपयोग करते हुए शिक्षक ये मान लेता है कि पूरी कक्षा में एक ग्लोब के उपयोग द्वारा अपेक्षित विषयवस्तु की समझ विकसित हो गयी. जबकि केवल उन्हीं बच्चों में थोड़ी बहुत समझ विकसित होती है जिन्हें ग्लोब को छूकर-पास से देखकर समझने का अवसर मिलता है. छोटे-छोटे समूहों में बच्चे ग्लोब लेकर कार्य करें ऐसे  अवसर देने के लिए एक कक्षा में एक से ज्यादा ग्लोब की आवश्यकता होगी. इस प्रकार बच्चों में सीखने का अवसर को लेकर भेदभाव अनजाने में ही शिक्षण के दौरान हो जाता है. यह सत्य है कि कक्षा में बच्चों को सीखने का अवसर कितना मिलता है यह इस पर निर्भर करता है कि उन्हें पाठ्यक्रम / पाठ्यचर्या द्वारा निर्धारित विषयवस्तुओं की गतिविधियों में भाग लेने का कितना अवसर मिलता है. यहाँ सीखने के अवसर में ‘समता’ एवं ‘समानता’ जैसे शब्दों के असल मायने को शिक्षण के दौरान ध्यान में रखना होता है.

कक्षा में शिक्षण के दौरान बच्चों के सीखने की प्रक्रिया और प्रकृति को भी ध्यान में रखना होता है. जब हम कहते हैं कि बच्चा स्वयं सीखता है, अपने साथी से अंतर्क्रिया करते हुए सीखता है, छोटे समूहों में सीखता है, तो सीखने की यह  प्रक्रिया कक्षा में हो पाये  इसके लिए  कक्षा में बच्चों को अवसर देना होगा. इस प्रकार का Co-operative Learning से हम प्रभावशाली शिक्षण के साथ सामाजिक अंतर्क्रिया को प्रोत्साहित कर सकते हैं. यह बच्चों की रूचि, विषयगत मूल्य एवं उनके सकारात्मक अभिवृत्ति को भी बढाता है. चूंकि चर्चा करना Co-operative Learning का मुख्य हिस्सा होता है अतः इसमें संज्ञानात्मक एवं उनके सह-संज्ञानात्मक क्षमता को पोषित करने, उसे विकसित करने की पूरी गुंजाइश होती है. जबकि परम्परागत शिक्षण प्रक्रिया में पूरी कक्षा को किसी एक ही विषयवस्तु / पाठ में एक साथ एक ही स्तर का मानकर शिक्षण कराया जाता है, साथ ही जो task बच्चों को दिए जाते हैं उसे सभी बच्चे व्यक्तिगत रूप से करते हैं जिसे एक नियत समय में करते हैं. Co-operative Learning में भी पूरी कक्षा के साथ एक साथ ही काम होता है, लेकिन इसमें बच्चों का जोड़ी में काम करना, छोटे समूहों में भागीदारी करते हुए काम करना इसे विशिष्ट बना देता है. यह सीखने को सार्थक बनाता है जिसे सामाजिक मूल्यों जिनकी हमने शिक्षा के सामनी मूल्यों के अंतर्गत बात की के साथभी जोड़कर देखा जा सकता है.

यद्यपि Co-operative Learning में विशेषकर छोटे समूहों में कार्य करने का अवसर देना कक्षा में उपलब्ध शिक्षण सहायक सामग्री पर भी निर्भर करता है. उदाहरण के लिए बच्चों में ग्लोब की समझ एवं पठन कौशल विकसित करने के लिए छोटे समूहों में ‘सीखने’ का अवसर देना है तो कक्षा में एक मात्र ग्लोब से काम नहीं चलेगा.   

शिक्षण रणनीति में सामान्य सीखना एवं पठन कौशल के अलावा अर्थ निर्माण, गणितीय समस्याओं को सुलझाना तथा वैज्ञानिक ढंग से तार्किक सोच के लिए शिक्षण करना शिक्षण का मुख्य भाग होना चाहिए. शिक्षण के दौरान सम्पूर्ण रणनीति में कुछ सवाल बच्चों के ज्ञान के सन्दर्भ में  किए जा सकते  हैं  कि कोई ज्ञान / जानकारी  को बच्चे कितना जानते है, कैसे जानते हैं, तथा इस समझ या जानकारी को कब, क्यों और किन परिस्थितियों में उपयोग कर सकते हैं. इस तरह की रणनीति से शिक्षण को पुख्ता बनाया जा सकता है.  

जैसा कि लेख के प्रारम्भ में ही कहा गया है कि ‘आकलन’ शिक्षण प्रक्रिया में सम्मिलित है जो सतत चलता है तो इसके लिए यह जरूरी हो जाता है कि एक शिक्षक अपनी शिक्षण प्रक्रिया के दौरान सभी बच्चों का यथोचित अवलोकन करता रहे. और अभ्यास और अनुप्रयोग का अवसर बच्चों को आवश्यकतानुसार उपलब्ध कराता रहे. शिक्षक को हमेशा अनेक औपचारिक व अनौपचारिक मूल्यांकन के तरीकों को अपने शिक्षण प्रक्रिया में स्थान देना चाहिए. मूल्यांकन चाहे जिस तरीके का हो वह लक्ष्य आधारित होना चाहिए. यह भी सत्य है कि अच्छी तरह से विकसित पाठ्यक्रम में मूल्यांकन / आकलन के धटक स्वमेव शामिल होता है.समझ आधारित आकलन करते समय यह देखा जाना चाहिए कि बच्चे अपने उत्तरों में अपने तर्क को कितना स्थान देते है.

एक अच्छी शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक बच्चों का आकलन केवल ग्रेड देने के लिए नहीं बल्कि बच्चों की उपलब्धि को समग्रता में देखने के लिए करता है. साथ ही वह सीखने-सिखाने की प्रक्रिया के दौरान ही बच्चों की उपलब्धि व उन्हें सीखने में आने वाली कठिनाइयों का सतत अनुवीक्षण करते रहता है.

जहां तक सीखने और आकलन का सम्बन्ध है ज्यादातर बच्चों को अभ्यास के मौके और करके देखने का मौक़ा देने से वे सीखने के लिए उत्साहित नज़र आते हैं. वे अपने सीखे हुए को और अच्छा करने के लिए अभ्यास करते है, बशर्ते सीखने का वातावरण शिक्षक ने बनाई हो. आकलन की कड़ी  में अभ्यास और अनुप्रयोग की दिशा में अवसर उपलब्ध कराने के उद्देश्य से बच्चों को गृहकार्य देना भी एक सार्थक कदम हो सकता है. यद्यपि बच्चों को गृहकार्य देना आदर्श स्थिति में अनुचित समझा जाता है. इसके बावजूद प्रश्नों की प्रकृति और उसके कठिनाई के स्तर को ध्यान में रखकर गृहकार्य देने से अभ्यास के अवसर को बढाया जा सकता है. यह गृहकार्य ऐसा हो सकता है जिसे वह स्वतंत्र रूप से स्वयं कर सके. गृह कार्य देने के बाद यह सावधानी रखनी पड़ती है कि अगले दिन बच्चे जब शाला आए तो उसे जांचा – परखा जाए, सुधार की आवश्यकता पड़ने पर सुधारने का मौक़ा बच्चों को अवश्य दिए जाएं.

अब हम बात करते हैं शिक्षण चक्र के अंतिम हिस्से ‘चिंतनशील सोच’ (Reflective Thinking) की. यह एक कौशल है जो शिक्षक एवं शिक्षण के मध्य का महत्वपूर्ण हिस्सा होता है. यह एक तरह का स्व आकलन / समीक्षा जैसा कुछ है. जिसमें शिक्षक को अपने किए गए प्रयास को उद्देश्यपूर्ण उपलब्धि के साथ जोड़कर देखता है और अपने प्रयासों में लगातार सुधार करता है.

निष्कर्ष

इस प्रकार शिक्षण की तैयारी में शिक्षा के सभी पहलुओं को देखना एक अच्छी शिक्षण प्रक्रिया के लिए महत्वपूर्ण है. आखिरकार शिक्षा तंत्र की उपादेयता इसी में है कि बच्चे का सर्वांगीण विकास हो और वे एक ऐसे समाज की रचना में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सके जिसे संविधान की प्रस्तावना में संवैधानिक मूल्यों के रूप में परिकल्पित की गयी है.

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शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2021

गणितीयकरण के मायने एवं प्रक्रिया

 गणितीयकरण के मायने एवं प्रक्रिया

(एक सैद्धान्तिक पक्ष)


आदिकाल से ही गणित का महत्व रहा है, जो शाश्वत सत्य है। विज्ञान एवं तकनीकी में विकास गणित से ही संभव हुआ है। और तो और हम रोजाना ही गणित से दो-चार होते रहते हैं। गणित सभी क्षेत्रों में विद्यमान है। शायद इसकी अमूर्तता के कारण इसे एक कठिन विषय मानते है।  विद्यालयों में बच्चों को गणित विषय कठिन लगता है। इसे सबसे कठिन विषय के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है। और जिन बच्चों के लिए शिक्षक इसे आसान विषय कहते हैं वे भी बच्चों को कुछ संक्रियाएँ सिखा देने को पर्याप्त मान लेते हैं। दरअसल जब कोई शिक्षक किसी बच्चे के बारे में यह राय रखते हैं कि यह बच्चा गणित में होशयार है तो उनका आशय यही रहता है कि ये बच्चा जोड़ना-घटाना-गुणा-भाग आसानी से कर लेता है अर्थात बच्चा गणना करना सीख गया है। कहने का आशय है कि गणित सिखाते समय या व्यवहार में इसके उद्देश्यों की ओर ध्यान नहीं जाता। जबकि इसके विस्तृत और विशिष्ट उद्देश्य हमारे पाठ्यचर्या में उल्लेखित है। यदि ऐसा है तो सभी शिक्षकों को गणित सिखाने के पहले एक सवाल स्वयं से करना चाहिए कि गणित हम बच्चों को सिखाते ही क्यों है या इस विषय को क्यों सीखा जाए? गणित जैसे अमूर्त विषय के माध्यम से सीखे जाने वाले कौशल हमारे दैनिक जीवन में किस प्रकार सहायक होते हैं?

इस लेख में हम कोशिश करेंगे कि गणित में गणितीयकरण के मायने स्पष्ट हो। सबसे पहले हम देखते हैं कि गणितीय क्रिया का शाब्दिक अर्थ क्या है? तो सीधा जवाब मिलता है कि गणितीयकरण गणितीय सूत्रों तक पहुँचना है। जबकि गणित में सवाल हल करने के लिए बच्चों को गणितीय सूत्रों की रचना करने के बजाय गणितीय सूत्रों को याद करने पर ज़ोर दिया जाता है। सामान्य रूप से गणितीयकरण का संबंध गणित में विकसित अवधारणा, प्रक्रिया एवं विधि का ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों के उपयोग से है। इसके लिए हमें गणित शिक्षण के उद्देश्यों को केंद्र में रखना होगा। डेविड व्हीलर कहते हैं “ज्यादा गणित जानने की अपेक्षा कैसे गणितीयकरण किया जाय यह अधिक उपयोगी है।“ राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा – 2005 में कहा गया है - “गणितीयकरण के लिए छात्रों की योग्यता को विकसित करना ही गणित शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है।“ तो फिर से सवाल उठता है कि आखिर ये गणितीयकरण है क्या? जैसा कि पहले कहा गया है कि गणितीय क्रिया का मतलब गणितीय सूत्रों तक पहुँचना है। जब कोई व्यक्ति / बच्चा अपने सभी क्रियाकलापों तथा व्यवहार में व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध रूप से अपने आपको गणितीय सटीकता के साथ प्रदर्शित करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है। तब हम कह सकते हैं कि बच्चे ने गणितीयकरण की कौशल हासिल कर ली है। अब आगे सवाल उठता है कि गणितीयकरण या गणितीय सूत्रों तक पहुँचना बच्चों को कैसे सिखाया जाय?

गणितीयकरण की प्रक्रिया को समझने से पहले हम ये जान लेते हैं कि इस गणितीयकरण में कौन-कौन सी क्षमताएँ शामिल है जिस पर काम करने से बच्चों में गणितीयकरण के कौशल विकसित होने की संभावना बढ़ जाएगी। ये क्षमताएँ हैं- समस्या समाधान, परीक्षणों के माध्यम से समस्याओं का हल ढूँढना, तर्क एवं प्रमाण, गणितीय सोच आदि । और इन सबका कुशलता पूर्वक उपयोग करते हुए गणितीय सूत्र की रचना करना सबसे महत्वपूर्ण है। तो क्या हमारे बच्चे गणितीय सूत्रों की रचना करने में समर्थ हो रहे है? इसके लिए जरूरी है कि बच्चों को रटना सिखाने के बजाय समस्या को समझने की क्षमता विकसित करके उसका हल ढूंढ कर गणित का उपयोग करना सीखें।

आइये अब थोड़ा इस बात पर विचार करते हैं कि गणितीयकरण के कौशल विकसित करने की प्रक्रिया क्या हो सकती है? इसके लिए सबसे पहले एक समस्या लेते हैं और देखते हैं कि किस प्रक्रिया से बच्चे गणितीयकरण या किसी समस्या के हल के लिए सूत्रों की रचना करने में सक्षम हो पाते हैं।

हाँ तो समस्या है- कक्षा का क्षेत्रफल निकालना। यहाँ यह ध्यान रखना होगा कि बच्चों में क्षेत्रफल की अवधारणा भी स्पष्ट हो जाए और यह भी समझ जाएँ कि क्षेत्रफल निकालने का सूत्र कैसे बना? या बन गया? सबसे पहले आमतौर पर प्रचलित प्रक्रिया पर दृष्टिपात करते है।

इसके लिए सबसे पहले हम बच्चों को इसका सूत्र बता देते हैं – लंबाई x चौड़ाई = क्षेत्रफल । अब किसी स्थान की लंबाई और चौड़ाई नाप कर इसे सूत्र में पिरो कर क्षेत्रफल ज्ञात करना सीखा देते हैं। दरअसल इस प्रक्रिया में हम बच्चों को सिखा नहीं रहे होते हैं बल्कि रटा रहे होते हैं। इससे बच्चों में क्षेत्रफल की अवधारणा भी नहीं बनती केवल क्षेत्रफल का सूत्र उनके मस्तिष्क में छप जाती है और इसे ही हम बच्चों का सीखना मान लेते हैं।

अब क्षेत्रफल ज्ञात करने और सूत्र तक पहुँचने की एक और प्रक्रिया को देखते हैं। इस प्रक्रिया में हमारा उद्देश्य होगा-

·        बच्चों में क्षेत्रफल की अवधारणा स्पष्ट करना 

·        क्षेत्रफल के लिए सूत्र तक पहुंचना या सूत्र बनाना तथा

·        संवैधानिक मूल्यों को कक्षा प्रक्रिया में स्थान देना

प्रक्रिया – 1 क्षेत्रफल की अवधारणा की समझ-

o   5-5 बच्चों का (सुविधानुसार इससे ज्यादा भी) छोटे-छोटे समूह बनाएँ। प्रत्येक समूह को गोल घेरे में बैठाएँ।

o   प्रत्येक समूह को 3 x 3 फीट का चार्ट पेपर उपलब्ध कराएं। (ये साइज़ अन्य भी हो सकता है)। साथ ही 1 x 1 फीट एक एक छोटा चार्ट पेपर का टुकड़ा अलग से दें।

o   अब निर्देश दें या सभी से कहें या सभी से पुछें कि इस छोटे चार्ट पेपर के टुकड़े को बड़े चार्ट पेपर में कितनी बार रखें कि यह बड़े चार्ट पेपर को पूरा माप कर लेगा? जितनी बार रखा जा सकता है उसकी संख्या लिखें ।

o   जो संख्या मिलेगी उसी संख्या के बराबर बड़े चार्ट पेपर का माप होगा जिसे गणित की भाषा में क्षेत्रफल कहेंगे। यहाँ बच्चों से विस्तार से चर्चा करें और कहें कि किसी माप के द्वारा किसी स्थान को जितनी बार ढँक लेता है वही माप उस स्थान का क्षेत्रफल कहलाता है।

o   अब इसे लिखने का तरीका भी बता दें कि बड़े चार्ट पेपर का क्षेत्रफल 9 वर्ग फीट होगा।

(उपरोक्त प्रक्रिया की तरह कक्षा में उपलब्ध टेबल का क्षेत्रफल – ब्लेकबोर्ड का क्षेत्रफल निकालने का अभ्यास कराएं। अब तक की प्रक्रिया में बच्चे ये जान लेंगे कि कि क्षेत्रफल क्या होता है और इसे कैसे लिखा जाता है।)

अब बारी आती है उस प्रक्रिया कि जिसमे बच्चे क्षेत्रफल निकालने के सूत्र तक स्वयं पहुंचे / सूत्र की रचना करें अर्थात गणितीयकरण कर पाएँ।

 

 

प्रक्रिया – 2 क्षेत्रफल के लिए सूत्र की रचना करना –

o   अब बच्चों के सामने यह सवाल रखें कि यदि इस कक्षा / कमरे का क्षेत्रफल ज्ञात करना हो तो हमें क्या करना होगा? यहाँ बच्चों को सोचने का पर्याप्त समय दें, उनके बताए तरीकों को ध्यान से सुनें और उन तरीकों में आने वाली कठिनाइयों पर चर्चा करें । जैसे बच्चे कहें कि कमरे में छोटे चार्ट के टुकड़े को रख-रख कर गिन लेंगे। तो उनका ध्यान दिलाएँ कि इसमे तो बहुत समय लग जाएगा। तो फिर क्या करें कि आसानी से कमरे का क्षेत्रफल निकल जाए?

o   यहाँ बच्चों से कहें कि पहले उपयोग में लाए बड़े चार्ट पेपर की लंबाई और चौड़ाई एक बार ज्ञात कर लिख लें और दोनों संख्या को आपस में गुणा  कर मिलने वाली संख्या का मिलान का पता करें कि पूर्व प्रक्रिया से प्राप्त संख्या ही है या अलग है। (जाहीर है बच्चे कहेंगे कि वही संख्या (9) है)।

o   बच्चों को फिर सोचने का मौका दें और उन्हें इस निष्कर्ष पर पहुँचने में उनकी मदद करें कि किसी स्थान का क्षेत्रफल निकालने के लिए उस स्थान की लंबाई और चौड़ाई का गुणन करने से भी हमें क्षेत्रफल प्राप्त हो जाता है। अतः क्षेत्रफल निकालने का सूत्र हुआ- लंबाई x चौड़ाई = क्षेत्रफल ।

उपरोक्त दोनों प्रक्रियाओं में आपने गौर किया कि बच्चे अपनी सक्रियता से क्षेत्रफल की समझ बना रहे थे। दोनों ही प्रक्रिया में शिक्षक की भूमिका एक सुविधादाता के रूप में मान्य रही। इस प्रकार बच्चे क्षेत्रफल की अवधारणात्मक समझ के साथ सूत्र तक पहुँच रहे थे। जिसे हम गणितीयकरण के कौशल पर काम करना कह सकते हैं।

संवैधानिक मूल्यों को कक्षा प्रक्रिया में स्थान देना को भी हमने ऊपर उद्देश्य में लिखा है। तो आपका सवाल होगा कि यह उद्देश्य कैसे पूरा हुआ? गौर करें हमने बच्चों को छोटे – छोटे समूह में कार्य करने का अवसर दिया, इससे बच्चों में मिलजुल कर सहयोग की भावना जैसे मूल्य विकसित होंगे। इसी तरह कक्षा की प्रक्रिया में चर्चा को मुख्य स्थान दिया। जो प्रजातन्त्र की मुख्य विशेषता है।

साथियो, अब आप एक अन्य समस्या लें और बच्चों को गणितीयकरण तक ले जाने की कक्षा प्रक्रिया पर विचार करें। जैसे कि यदि एक हजार लीटर की धारिता वाले पानी की टंकी का निर्माण करना हो तो धारिता की अवधारणात्मक समझ एवं सूत्र रचना की प्रक्रिया क्या होगी?    

 

       

 

 

मंगलवार, 15 सितंबर 2020

शिक्षा क्या है ?

 

जे. कृष्णमूर्ती की नज़र में शिक्षा क्या है?  


पुस्तक का परिचय –

‘शिक्षा क्या है? (जे. कृष्णमूर्ति) नामक यह पुस्तक राजपाल प्रकाशन से प्रकाशित 232 पृष्ठ की एक पुस्तक है जिसका प्रथम संस्करण 2008 में प्रकाशित हुई थी जिसमें जे. कृष्णमूर्ति ने वार्ता के माध्यम से शिक्षा पर अपने विचार रखा है. उन्होंने अपनी वार्ता में जिन मुद्दों को शामिल किया है उनमें मुख्य हैं- भय, तुलना, अनुशासन, ईर्ष्या, शांति, धर्म, शिक्षा का उद्देश्य, ज्ञान और विशेषज्ञता.

 

जे. कृष्णमूर्ति ब्रिटेन, यू.एस.ए. व भारत स्थित कृष्णमूर्ति फाउंडेशन द्वारा संचालित शिक्षा संस्थानों से सम्बद्ध रहे हैं. वहाँ के विद्यार्थियों एवं शिक्षकों से उनका नियमित संवाद होता रहता है. उन्होंने शिक्षा को दैनिक जीवन की कसौटी पर परखा है. शिक्षा पर प्रस्तुत विचार उनके विद्यार्थियों एवं शिक्षकों से हुई संवाद का सार है. जो राजपाल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘शिक्षा क्या है? जे. एन कृष्णमूर्ति’ पर आधारित है.   

जे. कृष्णमूर्ती ने अपनी वार्ता में सर्वप्रथम वर्तमान में लोगों के द्वारा ‘शिक्षा’ का अर्थ समझे जाने की और ध्यान दिलाया है जिसके अनुसार स्कूल जाना, पढ़ना-लिखना सीखना, परीक्षाएं पास करना तथा कुछ खेल  खेलना ही शिक्षा है. आमतौर पर लोगों के लिए जीने से आशय नौकरी पा लेने, बच्चे पैदा करने, परिवार का पालन-पोषण करने समाचार पत्रों-पत्रिकाओं को पढ़ने, बढ़-चढ़ कर बातें कर सकने, और कुशलतापूर्वक वाद-विवाद कर सकने तक ही सीमित है. कृष्णमूर्ति ने शिक्षा को कहीं इसके आगे देखने की चेष्टा किया है, जैसे शिक्षा के मायने यह हो सकता है कि यह आपको दुनिया का सामना करने में मदद करे. जिस संसार में चारों तरफ प्रतिस्पर्धा हों, व्यक्ति केवल अपना लाभ देख रहा हो, ऐसे संसार में ‘संसार क्या है’ जैसे प्रश्न का उत्तर खोजना भी शिक्षा के मायने हो सकता है. इसके अलावा उन्होंने धर्म को भी जीवन माना है. यहाँ धर्म के वह मायने नहीं है जो कुछ कर्मकांडों के चारों और विद्यमान होता है. यह कर्मकांड लोगों में व्याप्त भय का ही परिणाम होता है. इस प्रकार लोगों के जीवन में अनेक भय, संघर्ष और समस्याएँ विद्यमान होती हैं, अतः वे सवाल करते हैं कि क्या यह नहीं है कि इन सभी समस्याओं का सामना करने के लिए शिक्षा मनुष्य को समर्थ बनाएं? इनका सामना करने के लिए मनुष्य को शिक्षित बनाएं? समस्याओं को कैसे सोचा समझा जाए.

उन्होंने जीवन का सामना करने, जीवन को समझने में मदद करने को सम्यक शिक्षा कहा है. ताकि मनुष्य जीवन से कभी हार न मानें. शिक्षा का अर्थ यह हो कि क्या सोचना चाहिए के बजाय कैसे सोचना चाहिए पर बल देता हो. विद्यालय में भी इस पर जोर देना चाहिए.

प्रज्ञा क्या है? जैसे सवालों के आईने में उनका मानना है कि जो व्यक्ति लोगों के मत से भयभीत है, शिक्षक से भयभीत है, नौकरी न छूटे इससे भयभीत है, वह बुद्धिमान या मेघावी नहीं हो सकता. अतः शिक्षा इन भयों को समझने तथा मुक्त होने में, स्वतंत्रता पूर्वक विचार करने में मदद करे. विद्यालय में अपरिचित माहौल में कोई भी भय से मुक्त नहीं हो सकता इस मायने में सर्वप्रथम यह प्रयास होना चाहिए कि विद्यालय में बच्चों और शिक्षकों के मध्य किसी प्रकार का अपरिचय का वातावरण नहीं होना चाहिए. कक्षा में छात्रों को नियंत्रित करने के लिए भय का सहारा लेते हैं, शिक्षक कहते हैं कि भय न हो तो बच्चे सीखेंगे ही नहीं. इस तरह का वातावरण बच्चों को केवल नियंत्रित ही कर सकते हैं लेकिन यह कहना कठिन ही होगा कि इससे बच्चे सीखेंगे. कक्षा में बच्चों की संख्या अधिक होने पर शिक्षक उन्हें नियंत्रित करने के लिए अनेक उपाय खोजता है . यहाँ भय बच्चों को नियंत्रित करने का एक साधन बन जाता है. कृष्णमूर्ति का मानना है कि भय मन को विकृत कर देता है. और मन की यह विकृति मनुष्य को कभी प्रज्ञावान बनने नहीं देगा अतः विद्यालय में हर तरह के भय को समझ कर उसे दूर करने की कोशिश करनी होगी. क्योंकि भय मनुष्य को सृजनशील होने से भी रोकता है. भय से बचने के लिए हम वैसा ही करने लगते हैं जैसा कोई अन्य चाहता है. यहाँ एक प्रश्न स्वाभाविक से उठता है कि क्या शिक्षा का काम विद्यार्थियों को हर प्रकार के भय से मुक्त कराने में सहायता देना नहीं है? कृष्णमूर्ति का मानना है कि किसी भी प्रकार के भय पर आधारित विद्यालय भ्रष्ट होता है, उसका न होना ही बेहतर है.

आगे वे भय को प्रेम व तुलना से जोड़ कर देखते हैं. यदि हम अपने शिक्षक से, अभिभावक से भय रखते हैं तो उनसे प्रेम करना संभव नहीं है. भय की शुरुवात तुलना से होती है जैसे – किसी को यह कहा जाए कि तुम्हें तो अमुख की तरह बनना है तो यह भय स्वमेव उत्पन्न होगा कि यदि उस तरह न बन पाया तो क्या होगा. इसलिए शैक्षणिक स्थानों में पहली चिंता होनी चाहिए कि भय के वास्तविक कारणों का उन्मूलन कैसे किया जाए? अर्थात शिक्षा वही हो जो मनुष्य को भय से मुक्त करती हो.

शिक्षा को समझने के लिए उन्होंने तुलना एवं ईर्ष्या के मध्य संबंधों पर भी प्रकाश डाला है. जब कोई शिक्षक किसी बच्चे की तुलना अन्य बच्चे से करता है और उसे कहता है कि तुमको अमुक की तरह बनना है तो वह उस तरह बनने में अपना सारा ध्यान लगा देता है, वह संघर्ष करने में लग जाता है, वह एक तरह की प्रतिस्पर्धा में लग जाता है और प्रतिस्पर्धा करते हुए उससे ईर्ष्या करने लगता है. इस प्रकार किसी दूसरे से तुलना से बालक की / मनुष्य की स्वतंत्र पहचान भी समाप्त हो जाती है जबकि शिक्षा तो ऐसी हो जो सभी की विशिष्टता को उभारने व उसकी पहचान बनाने में मदद करती हो. अतः यह आवश्यक है कि शिक्षक को प्रत्येक बालक का अध्ययन करना होगा और पता लगाना होगा कि वह किस ढंग से पढ़ लिख रहा है.

शिक्षा पर विचार करने के लिए उन्होंने परीक्षा एवं उससे होने वाले डर पर भी चर्चा किया है. यहाँ डर से आशय है परीक्षा में पास – फेल का डर अर्थात दूसरों की तरह अच्छा न कर पाने का डर. वे कहते हैं कि क्या ऐसा संभव है कि परीक्षा हो ही न. क्या कोई तरीका नहीं है कि बच्चे की प्रगति का दिन प्रतिदिन ख्याल रखा जा सके और निश्चित किया जा सके कि उसकी रुचि क्या है. इस डर को उन्होंने सुरक्षा से भी जोड़ कर देखा है अर्थात बच्चों को यह अहसास कराना कि कोई उनका ख्याल रख रहा है, ध्यान दिया जा रहा है, उनकी परवाह की जा रही है तो उसे इस बात का डर ही नहीं होगा कि कोई उसे फेल करने के लिए परीक्षा ले रहा है. यदि बच्चे पर लगातार ध्यान दिया जाए, परवाह किया जाए तो परीक्षा लेने पर भी बच्चे सरलता से उत्तीर्ण हो सकते हैं. मुख्य है कि बच्चे पर लगातार ध्यान देना.

इसी तरह स्वतंत्रता एवं खुशी का अनुभव भी बच्चों को बेहतर ढंग से सीखने का अवसर देती है.

जे. कृष्णमूर्ति ने ‘प्रगति’ पर भी चिंतन किया है. आमतौर पर सभी लोग प्रगति का आशय यही समझते हैं कि हम बैलगाड़ी से जेट तक पहुँच गए हैं. निश्चित ही यह वैज्ञानिक प्रगति है लेकिन अन्य दिशाओं में क्या कोई प्रगति हुई है? वे सवाल उठाते हैं कि क्या युद्धों में कमी आ रही है? क्या लोग अधिक दयालु, अधिक विचारशील, और अधिक सौम्य हो रहे हैं? बतौर पाठक हम भी इस पर विचार कर सकते हैं कि वर्तमान में जिसे हम शिक्षा कह रहे हैं क्या वह भी इसके लिए जिम्मेदार है? यदि हाँ तो हम उसे शिक्षा क्यों कहें?

आदतों में बंध जाना भी विचारशील होने में बाधक है क्योंकि हम वह सब करते चलते हैं जिसे बड़ों को करते हुए देखते है. प्रतिदिन पूजा करने की आदत बना लेना इसी तरह की एक क्रिया है जो बतौर आदत हमारे जीवन में शामिल हो जाता है. जबकि शिक्षा में विचारशील होने के अवसर का होना जरूरी है.    

 

 

शिक्षा पर उनके विचारों को निम्नलिखित बिन्दुओं में रखने का प्रयास किया गया है-

·         दुनिया का सामना करने में मदद करे

·         संसार क्या है? प्रश्न का उत्तर खोजना भी शिक्षा के मायने हो सकता है.

·         समस्याओं का सामना करने के लिए शिक्षा मनुष्य को समर्थ बनाएं

·         जीवन का सामना करने, जीवन को समझने में मदद करने को सम्यक शिक्षा कहा है

·         भय को समझने में और उससे मुक्त होने में मदद करे. (चिंतन करना, अवलोकन करना) भय का एक कारण तुलना करना हो सकता है, यही तुलना ईर्ष्या को जन्म देती है. इससे उस व्यक्ति की विशिष्टता ख़त्म हो जाती है. ऐसी स्थिति में शिक्षक के लिए जरूरी है कि वह प्रत्येक के प्रति, व्यक्तिगत रूप से ध्यान दे.

·         विद्यालय में होने वाली तुलना को पुरी तरह समाप्त करना होगा, अंक और श्रेणी के प्रचलन को और अंततः परीक्षा के भय को पुरी तरह समाप्त करना होगा.

·         शिक्षित होने का अभिप्राय है कि आपने अपने समग्र अस्तित्व को, जीवन की सम्पूर्ण प्रक्रिया को, अपने आप को समझ लिया है.

·         वर्तमान शिक्षा व्यवस्था व्यक्ति को विचारहीन होने के लिए प्रशिक्षित करता है, विद्रोह करने, प्रश्न उठाने के लिए नहीं. यदि कभी संयोग से संशय की कोई तरंग उठाती भी है तो उसी समय किसी व्याख्या से उसे शांत कर दिया जाता है. इसे ही हम शिक्षण की प्रक्रिया समझते हैं.

·         किसी विद्यालय के लिए खास महत्व इस बात का होता है कि एक ऐसा परिवेश निर्मित किया जाए जहां भय न हो, जहां छात्रों को बाध्य न किया जाता हो या उन्हें धमकाया न जाता हो, उनकी आपस में तुलना न की जाती हो, ताकि वहाँ स्वतंत्रता बनी रहे. इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वहाँ छात्र जो चाहे करने के लिए स्वतंत्र है, इसका तात्पर्य यह है कि विकास करने की, समझ बढ़ाने की, विचार करने की  स्वतंत्रता मिले.

·         शिक्षा का कार्य यह है कि मन को संवेदनशील होने में, सतर्क होने में सहायता करे ताकि यह आदत  या परम्परा में बंधकर कार्यरत न रहे, ताकि वह किसी भी चीज का अभ्यस्त न हो जाए, ताकि यह सदैव और जीवंत रहे.

·         शिक्षा का कार्य यह समझने में हमारी मदद करना भी है कि मन किस प्रकार से काम करता है. समझने का मतलब यह नहीं कि शंकर, बुद्ध अथवा मार्क्स के अनुसार समझे बल्कि अपनी स्वयं की प्रज्ञा की रोशनी में समझना कि हमारा मन किस तरह से कार्य करता है. क्योंकि मन के कार्य करने का तरीका ही अनेक उपद्रवों का कारण है, यही अनेक युद्धों को जन्म देता है.

 

 

शिक्षा के उद्देश्य

जे. कृष्णमूर्ति हम सभी से यह अपेक्षा करते हैं कि हम स्वयं सोचें कि शिक्षा का क्या कार्य है? शिक्षा का क्या उद्देश्य है? यद्यपि अनेक विद्वानों-दार्शनिकों-लोगों ने इस पर काफी विचार-विमर्श किये हैं. वे मानते हैं कि अब तक की जो शिक्षा है वह संसार में न तो शांति ला पाई है और न ही वह सांस्कृतिक उत्थान ही कर पाई है. इस मायने में जे. कृष्णमूर्ति के अनुसार शिक्षा का यह उद्देश्य है कि उसका मुख्य कार्य संसार में शांति स्थापित करना व सांस्कृतिक उत्थान लाना है. वर्तमान शिक्षा पर नज़र डालते हुए वे कहते हैं-

“जब आप दुनिया में चारों तरफ नज़र डालते हैं तो देखते हैं कि शिक्षा असफल रही है क्योंकि इसने युद्धों को रोकने में मदद नहीं की है, न तो इसने संसार में शांति लाने में सहायता की है और न ही इसने मनुष्य को किसी प्रकार की समझ ही प्रदान की है. इसके विपरीत, हमारी समस्याओं में और अधिक वृद्धि हुई है, और अधिक विध्वंसकारी युद्ध हो रहे हैं तथा पहले से बड़े क्लेश पैदा हो रहे हैं.”

इससे प्रश्न उठाना वाजिब है कि हमें शिक्षित क्यों किया जाता है? क्या शिक्षा का कार्य सिर्फ इतना ही है कि हम कुछ प्रतियोगी परीक्षा पास कर लें और हमें नौकरी मिल जाए? या यह एक सर्वांगीण प्रक्रिया है?

यदि सर्वांगीण प्रक्रिया है तो फिर सवाल उठाना होगा कि सर्वांगीण शिक्षा क्या है? इसके मूलभूत तत्व क्या है? इसका उत्तर किसी वर्ग विशेष के साथ जुड़ कर नहीं बल्कि स्वतंत्र रूप से सोचना होगा. वे उल्लेख करते हैं कि अब तक किसी भी प्रकार की क्रान्ति ने, न ही संगठित धर्म ने  शांति लाने में समर्थ रही है. इसका उद्देश्य दो या अधिक राष्ट्रों के विरोध में विचारधारा को खड़ा करना भी न हो. यह तभी संभव होगा जब हम किसी विचारधारा या पद्धति पर निर्भर होने के बजाय स्वतंत्र रूप से सोचे कि शिक्षा का कार्य क्या है.

परीक्षाएं पास कर लेने या नौकरी प्राप्त कर लेने को शिक्षा का कार्य मान लेने में बड़ी बाधा यह है कि शिक्षा तो उसके बाद भी सतत हमारी चेतना में, अनेक गतिविधियों में निरंतर चलते रहती है. अतः अपने ही भीतर एक प्रकाश बनना शिक्षा का एक कार्य हो सकता है.

शिक्षा के कार्य को स्पष्ट करने के लिए कृष्णमूर्ति ने ‘समग्र क्रान्ति’ शब्द का उपयोग किया है. अर्थात क्रान्ति केवल आर्थिक या सामाजिक न हो बल्कि क्रान्ति ऐसा हो जो मनुष्य की चेतना, उसके जीवन एवं अस्तित्व के लिए हो. इसके लिए आवश्यक है कि मनुष्यों में एक तरह की गहरी समझ हो जो संसार में स्थाई शांति लाने में सक्षम होगी.

शिक्षा का एक अहम् कार्य है कि वह मनुष्य को संस्कारबद्धता से मुक्त करे. क्योंकि हम जिस समाज में रहते हैं उसमें उसके द्वारा संस्कारबद्ध हो जाते हैं. और हम अपनी समस्याओं का सामना एक हिन्दू या ईसाई या कुछ और बन कर करते हैं. अतः संस्कार मुक्त होकर ही समस्या का समाधान करना चाहिए. यद्यपि अधिकांश का यही सोचना है कि मन को संस्कार मुक्त करना संभव नहीं है. इसे तो केवल सुसंस्कारित किया जा सकता है.

कृष्णमूर्ति कहते हैं-

“हममें से अधिकांश इसी बारे में सोचा करते हैं कि सुधार कैसे करें, बेहतर कैसे बनें, किस तरह बदलें- हम बदलाव, सुधार, बेहतरी......... में ही लगे रहते हैं. परन्तु हम अपने आप से यह प्रश्न कभी नहीं पूछते कि मन के लिए सभी संस्कारों के बंधन से स्वयं को मुक्त कर पाना संभव है या नहीं, ताकि जीवन का तात्पर्य सिर्फ जीविकोपार्जन तक सीमित न होकर युद्ध और शांति की समस्या, परम सत्य से जुड़े प्रश्न ...... यह सब कुछ है.”

समस्या समाधान को भी वे दो तरह से देखते हैं एक तो समस्या का समाधान ढूँढना और दूसरा समस्या का सामना करना. वे इसके दूसरे पक्ष में विश्वास करते हैं. यदि मनुष्य समस्या का प्रत्यक्ष सामना करना सीख जाए तो उसे समस्या का समाधान ढूँढने की जरूरत ही नहीं होगी जबकि आमजन समस्या का हल ढूँढने में अपना समय लगाता है. इस प्रकार समस्या का प्रत्यक्ष सामना करने के योग्य बनाना शिक्षा का कार्य हो सकता है. इसे ‘क्या विचार करें’ के स्थान पर ‘कैसे विचार करें’ के अभ्यास से पाया जा सकता है.

और अंत में ‘ज्ञान और विशेषज्ञता, शीर्षक के अंतर्गत कृष्णमूर्ति यह प्रश्न उठाते हैं –

“शिक्षा प्रदान करने वाले और आध्यात्मिक ज्ञान का प्रसार करने वाले विश्वविद्यालय क्या कर रहे हैं? क्या वे हमारे हृदयों और मन मस्तिष्क में कोई आमूल क्रान्ति ला रहे हैं?  

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