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शनिवार, 23 मई 2015

सामाजिक संस्थान
व्यक्ति अपने जीवन में अनेक निर्णय लेता है. व्यक्ति द्वारा लिया गए निर्णय पहली नज़र में ऐसा लगता है कि वह निर्णय स्वयं ले रहा है. लेकिन गहराई में चिंतन करने या समाजशास्त्रीय दृष्टि से चिंतन करने पर यह सच्चाई सामने आती है कि इस निर्णय के पीछे किसी न किसी सामाजिक संस्थान के विचार होते हैं या यह कह सकते हैं कि उस व्यक्ति द्वारा लिए गए निर्णय के पीछे किसी सामाजिक संस्थान का हाथ होता है. अर्थात ये सामाजिक संस्थाएं व्यक्ति / व्यक्तियों के समूह को, उसके व्यवहार को, क्रियाकलापों को नियंत्रित / प्रतिबंधित या कभी-कभी दण्डित करने का कार्य करती है.
ये सामाजिक संस्थाएं राज्य की तरह बृहत तथा परिवार के रूप में छोटी हो सकती है. परिवार नामक सामाजिक संस्थान में विवाह एवं नातेदारी पर विचार होता है या ये कह सकते हैं कि ये उसके मुख्य तत्व होते हैं. इसी तरह राजनीति, अर्थ व्यवस्था, धर्म, शिक्षा आदि भी एक सामाजिक संस्थान के रूप में कार्य करती है.
किसी संस्था की सामान्य लक्षणों की बात करें तो ये कहा जा सकता है कि ये स्थापित होते हैं (या स्थापित हो जाते हैं), इसके लिए कोई कानून / प्रथाएं होती हैं जिसके अनुसार यह संस्था कार्य करती है, ये व्यक्तियों पर, उसके क्रियाकलापों पर प्रतिबन्ध लगाती है, साथ ही साथ ये व्यक्तियों को अवसर भी प्रदान करती है. इस सबके अलावा सभी तरह के संस्थान (धर्म, परिवार, राज्य, शिक्षा........) का एक लक्ष्य भी होता है.
समाजशास्त्र के अर्थ / मायने के मामले में जिस तरह के अलग-अलग विद्वानों की अलग-अलग विचारधाराएं प्रचलित हैं उसी तरह सामाजिक संस्थान के बारे में भी अलग-अलग दृष्टिकोण हैं. प्रकार्यवादी दृष्टिकोण के अनुसार किसी भी सामाजिक संस्थानों में सामाजिक मानक-आस्था एवं मूल्य ये तीन तत्व जरूर होते हैं. इनके अनुसार ये संस्थाएं तो तरह की हो सकती है; पहला औपचारिक संस्था जैसे क़ानून शिक्षा आदि तथा दूसरा अनौपचारिक संस्थान जैसे परिवार, धर्म आदि.
संधर्षवादी दृष्टिकोण में मान्यता है कि किसी भी समाज में व्यक्तियों का स्थान समान नहीं होता. इन संस्थानों का संचालन कुछ प्रभावशाली वर्ग के द्वारा उनके हित में हो रहा होता है और वे इस प्रयास में रहते हैं कि उनके विचार ही पूरे समाज के विचार बन जाएं. ये प्रभावशाली वर्ग ही आगे चलकर शासक की भूमिका में होते हैं और शेष शासित.
परिवार, विवाह एवं नातेदारी के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि ये नैसर्गिक सामाजिक संस्थान है जो विश्व के सभी समाजों में होते हैं अतः इसे महत्वपूर्ण घटक माना जा सकता है.
प्रकार्यवादी यह मानते हैं कि जिस समाज में पुरुष वर्ग जीविकोपार्जन में और महिला वर्ग परिवार की देखभाल में लगी होती हैं वह समाज औद्योगिक समाज को सहज बना देती है, ऐसा समाज अच्छा कार्य कर रहा होता है. इस तरह घर का एक सदस्य घर के बाहर के कार्यों में और दूसरा घर और बच्चों की देखभाल में लगा होता है. हालांकि इस तरह की व्यवस्था में लिंग भेद के प्रश्न प्रमुखता में उठाये जाते हैं. क्योंकि ऐतिहासिक दृष्टि से यह देखा गया है कि कपड़ा कारखानों में महिला श्रम बल की भी प्रधानता रही है. इसी तरह आंध्रप्रदेश में दूरस्थ अंचल में रहने वाली ‘काडर’ नामक जनजाति में अभी भी सभी कार्य महिला एवं पुरुष एक साथ करते हैं, उनके मनोरंजन के साधन भी एक जैसे है.
समाज में कभी-कभी परिस्थितिवश घर महिला प्रधान भी हो जाते है. जैसे किसी घर का मुखिया नगर प्रवास कर जाता है तो वहां की महिला को खेतों में काम करने के साथ घर के सदस्यों का भरण – पोषण की जिम्मेदारी उस पर आ जाती है. दक्षिण-पूर्व महाराष्ट्र और उत्तरी आँध्रप्रदेश में कोलम जनजाति समुदाय में भी महिला प्रधान घर होते हैं.
अध्ययनों से पता चलता है कि आवास के नियमों के अनुसार मातस्थानिक या पितृस्थानिक समाज पाए जाते हैं. मातस्थानिक में पुरुष अपनी पत्नी के अभिभावक के घर में और पितृस्थानिक समाज में पुरुष अपनी पत्नी के साथ अपने अभिभावक के यहाँ रहता है.............क्रमशः आगे ........
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