समानता और स्वंत्रता लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
समानता और स्वंत्रता लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

मध्यान्ह भोजन : स्वतन्त्रता एवं समानता
सरकार से मान्यता प्राप्त एवं अनुदान प्राप्त स्कूल जहां सरकारी मान के अनुसार बच्चों के लिए मध्यान्ह भोजन की समुचित व्यवस्था है, जिसकी प्रशंसा की जानी चाहिए. स्कूलों में मध्यान्ह भोजन की व्यवस्था सिर्फ बच्चों के लिए पौष्टिक आहार की पूर्ति मात्र नहीं है, बल्कि बच्चों तक संवैधानिक मूल्यों के सामाजिक सन्देश को पहुंचाने का माध्यम भी है. सभी बच्चे एक साथ बैठकर भोजन करें इससे अच्छा समानता के उदाहरण हमें कहीं मिलेगा नहीं. लेकिन इसे शालाओं के माध्यम से बच्चों के मन में बिठाने में शिक्षको-अधिकारियों को सतर्क रहने की जरुरत है. यहाँ हमें यह विचार करने की जरुरत है की कहीं समानता स्थापित करने के लिए उनकी स्वतंत्रता को चोट तो नहीं पहुंचा रहे हैं? दरअसल यहाँ हम जिस स्कूल का जिक्र करने जा रहे है उस स्कूल में मध्यान्ह भोजन के समय शाला के मुख्य दरवाजे पर ताला जड़ दिया जाता है. ऐसा करने के पीछे शाला प्रबंधन का तर्क होता है कि बच्चे इस समय शाला परिसर से बाहर जाते हैं तो दुर्घटना होने की आशंका होती है. इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि बच्चों की सुरक्षा सर्वोपरी हो.
       ऊपर जो कुछ लिखा गया है उसमे कुछ भी गलत नहीं लगता लेकिन गौर करने से इसे हम मध्यान्ह भोजन व्यवस्था का एक पक्ष ही कह सकते हैं. दरअसल मध्यान्ह भोजन के समय शाला के मुख्य दरवाजे पर ताला जड़ना, कुछ बच्चों की पढाई को बाधित भी करता है. क्योंकि प्रत्येक शाला में कुछ बच्चे ऐसे भी होते हैं जिन तक हम समानता के सामाजिक सन्देश को पहुंचाए बिना उनसे उम्मीद करते हैं कि वे सभी बच्चों के साथ बैठकर भोजन करें, इनमे से भी वे बच्चे जिनका घर शाला के पास होता है वे मध्यान्ह भोजन के लिए अपने घर जाना चाहते हैं. शाला के मुख्य दरवाजे पर ताला लग जाने से ऐसे बच्चों को मध्यान्ह के बाद  शाला में भूखे ही रहना पड़ता है. इन भूखे बच्चों के बारे में कक्षा की एक शिक्षिका का अवलोकन है कि ये बच्चे मध्यान्ह के बाद अपना मन पढ़ाई में लगा नहीं पाते और ये सब इसलिए की इन बच्चों को सुरक्षा के नाम पर मध्यान्ह के समय शाला में जबरदस्ती रोक कर रखा जाता है. ये बच्चे शायद ज्यादा दिनों तक भूखे रह नहीं पायेंगे और शायद मज़बूरी में अन्य बच्चों के साथ बैठकर खाना भी शुरू कर दें और हम इस मुगालते में रहें कि इस स्कूल में सभी बच्चे एक साथ बैठ कर खाना खाते हैं.
जेंडरीकरण के साक्ष्य और बदलाव :
हम सभी व्यस्क विशेषकर जो शिक्षा में काम करते हैं हम अपने आसपास जेंडरीकरण के साक्ष्य ढूंढ़ते रहते हैं, जैसे- लड़कों का शाम को / रात को देर तक बाहर रहने में (लेकिन महिलाओं / लड़कियों से अपेक्षा करना की जल्दी घर आ जाएं), बच्चों की पाठ्यपुस्तकों में, शाला की गतिविधियों में, कक्षा के अन्दर बच्चों की बैठक व्यवस्था में ख़ास कर जब हम कक्षा में एक  तरफ बैठे छात्राओं और दुसरे तरफ बैठे छात्रों को देखते हैं तो हम सीधे तौर पर सामाजिक तानाबाना पर उंगली उठाते हैं कि देखो कैसे सामाजिक व्यवस्था है जो बच्चों को ना तो एक साथ बैठने की इजाजत देता है ना ही साथ खेलने में. इन सभी अवलोकनों में हम ये भूल जाते हैं कि हम सभी व्यस्क भी ऐसा ही करते हैं, हम स्वयं  जब बड़े-बड़े आयोजनों में भाग लेते हैं तो हमारी भी बैठक व्यवस्था में जेंडरीकरण साफ़ दीखता है जहां महिलाएं एक साथ बैठे मिल जायेंगे, इसी तरह पुरुषों को भी महिलाओं के समूह में बैठने में दिक्कत महसूस करते - संकोच करते आसानी से देखा जा सकता है, महसूस किया जा सकता है. इसे जेंडरीकरण के साथ - साथ क्षेत्रीयता के सन्दर्भ में भी देखा जाना चाहिए.

       हालांकि इस देश में औपचारिकेत्तर शिक्षा के आने के बाद जो बदलाव जेंडरीकरण एवं सामाजिकरण के क्षेत्र में हुए हैं उसे भूल नहीं सकते और इस बदलाव को समाज की मौन स्वीकृति भी है. यह बदलाव है छात्र-छात्राओं के लिए सरकार के द्वारा सह-शिक्षा की व्यवस्था. १९८२ से पहले तक सरकार एवं समाज ये मानकर चलती थी की बच्चों एवं बच्चियों के लिए अलग-अलग शाला की व्यवस्था हो. लेकिन आज जिस तरह शाला की व्यवस्था को बच्चों और बच्चियों के लिए सामान आवश्यकता के रूप में देखा जा रहा है, हमें आशान्वित होना चाहिए कि जेंडरीकरण और सामाजिकरण में बदलाव संभव है.