मंगलवार, 15 सितंबर 2020

शिक्षा क्या है ?

 

जे. कृष्णमूर्ती की नज़र में शिक्षा क्या है?  


पुस्तक का परिचय –

‘शिक्षा क्या है? (जे. कृष्णमूर्ति) नामक यह पुस्तक राजपाल प्रकाशन से प्रकाशित 232 पृष्ठ की एक पुस्तक है जिसका प्रथम संस्करण 2008 में प्रकाशित हुई थी जिसमें जे. कृष्णमूर्ति ने वार्ता के माध्यम से शिक्षा पर अपने विचार रखा है. उन्होंने अपनी वार्ता में जिन मुद्दों को शामिल किया है उनमें मुख्य हैं- भय, तुलना, अनुशासन, ईर्ष्या, शांति, धर्म, शिक्षा का उद्देश्य, ज्ञान और विशेषज्ञता.

 

जे. कृष्णमूर्ति ब्रिटेन, यू.एस.ए. व भारत स्थित कृष्णमूर्ति फाउंडेशन द्वारा संचालित शिक्षा संस्थानों से सम्बद्ध रहे हैं. वहाँ के विद्यार्थियों एवं शिक्षकों से उनका नियमित संवाद होता रहता है. उन्होंने शिक्षा को दैनिक जीवन की कसौटी पर परखा है. शिक्षा पर प्रस्तुत विचार उनके विद्यार्थियों एवं शिक्षकों से हुई संवाद का सार है. जो राजपाल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘शिक्षा क्या है? जे. एन कृष्णमूर्ति’ पर आधारित है.   

जे. कृष्णमूर्ती ने अपनी वार्ता में सर्वप्रथम वर्तमान में लोगों के द्वारा ‘शिक्षा’ का अर्थ समझे जाने की और ध्यान दिलाया है जिसके अनुसार स्कूल जाना, पढ़ना-लिखना सीखना, परीक्षाएं पास करना तथा कुछ खेल  खेलना ही शिक्षा है. आमतौर पर लोगों के लिए जीने से आशय नौकरी पा लेने, बच्चे पैदा करने, परिवार का पालन-पोषण करने समाचार पत्रों-पत्रिकाओं को पढ़ने, बढ़-चढ़ कर बातें कर सकने, और कुशलतापूर्वक वाद-विवाद कर सकने तक ही सीमित है. कृष्णमूर्ति ने शिक्षा को कहीं इसके आगे देखने की चेष्टा किया है, जैसे शिक्षा के मायने यह हो सकता है कि यह आपको दुनिया का सामना करने में मदद करे. जिस संसार में चारों तरफ प्रतिस्पर्धा हों, व्यक्ति केवल अपना लाभ देख रहा हो, ऐसे संसार में ‘संसार क्या है’ जैसे प्रश्न का उत्तर खोजना भी शिक्षा के मायने हो सकता है. इसके अलावा उन्होंने धर्म को भी जीवन माना है. यहाँ धर्म के वह मायने नहीं है जो कुछ कर्मकांडों के चारों और विद्यमान होता है. यह कर्मकांड लोगों में व्याप्त भय का ही परिणाम होता है. इस प्रकार लोगों के जीवन में अनेक भय, संघर्ष और समस्याएँ विद्यमान होती हैं, अतः वे सवाल करते हैं कि क्या यह नहीं है कि इन सभी समस्याओं का सामना करने के लिए शिक्षा मनुष्य को समर्थ बनाएं? इनका सामना करने के लिए मनुष्य को शिक्षित बनाएं? समस्याओं को कैसे सोचा समझा जाए.

उन्होंने जीवन का सामना करने, जीवन को समझने में मदद करने को सम्यक शिक्षा कहा है. ताकि मनुष्य जीवन से कभी हार न मानें. शिक्षा का अर्थ यह हो कि क्या सोचना चाहिए के बजाय कैसे सोचना चाहिए पर बल देता हो. विद्यालय में भी इस पर जोर देना चाहिए.

प्रज्ञा क्या है? जैसे सवालों के आईने में उनका मानना है कि जो व्यक्ति लोगों के मत से भयभीत है, शिक्षक से भयभीत है, नौकरी न छूटे इससे भयभीत है, वह बुद्धिमान या मेघावी नहीं हो सकता. अतः शिक्षा इन भयों को समझने तथा मुक्त होने में, स्वतंत्रता पूर्वक विचार करने में मदद करे. विद्यालय में अपरिचित माहौल में कोई भी भय से मुक्त नहीं हो सकता इस मायने में सर्वप्रथम यह प्रयास होना चाहिए कि विद्यालय में बच्चों और शिक्षकों के मध्य किसी प्रकार का अपरिचय का वातावरण नहीं होना चाहिए. कक्षा में छात्रों को नियंत्रित करने के लिए भय का सहारा लेते हैं, शिक्षक कहते हैं कि भय न हो तो बच्चे सीखेंगे ही नहीं. इस तरह का वातावरण बच्चों को केवल नियंत्रित ही कर सकते हैं लेकिन यह कहना कठिन ही होगा कि इससे बच्चे सीखेंगे. कक्षा में बच्चों की संख्या अधिक होने पर शिक्षक उन्हें नियंत्रित करने के लिए अनेक उपाय खोजता है . यहाँ भय बच्चों को नियंत्रित करने का एक साधन बन जाता है. कृष्णमूर्ति का मानना है कि भय मन को विकृत कर देता है. और मन की यह विकृति मनुष्य को कभी प्रज्ञावान बनने नहीं देगा अतः विद्यालय में हर तरह के भय को समझ कर उसे दूर करने की कोशिश करनी होगी. क्योंकि भय मनुष्य को सृजनशील होने से भी रोकता है. भय से बचने के लिए हम वैसा ही करने लगते हैं जैसा कोई अन्य चाहता है. यहाँ एक प्रश्न स्वाभाविक से उठता है कि क्या शिक्षा का काम विद्यार्थियों को हर प्रकार के भय से मुक्त कराने में सहायता देना नहीं है? कृष्णमूर्ति का मानना है कि किसी भी प्रकार के भय पर आधारित विद्यालय भ्रष्ट होता है, उसका न होना ही बेहतर है.

आगे वे भय को प्रेम व तुलना से जोड़ कर देखते हैं. यदि हम अपने शिक्षक से, अभिभावक से भय रखते हैं तो उनसे प्रेम करना संभव नहीं है. भय की शुरुवात तुलना से होती है जैसे – किसी को यह कहा जाए कि तुम्हें तो अमुख की तरह बनना है तो यह भय स्वमेव उत्पन्न होगा कि यदि उस तरह न बन पाया तो क्या होगा. इसलिए शैक्षणिक स्थानों में पहली चिंता होनी चाहिए कि भय के वास्तविक कारणों का उन्मूलन कैसे किया जाए? अर्थात शिक्षा वही हो जो मनुष्य को भय से मुक्त करती हो.

शिक्षा को समझने के लिए उन्होंने तुलना एवं ईर्ष्या के मध्य संबंधों पर भी प्रकाश डाला है. जब कोई शिक्षक किसी बच्चे की तुलना अन्य बच्चे से करता है और उसे कहता है कि तुमको अमुक की तरह बनना है तो वह उस तरह बनने में अपना सारा ध्यान लगा देता है, वह संघर्ष करने में लग जाता है, वह एक तरह की प्रतिस्पर्धा में लग जाता है और प्रतिस्पर्धा करते हुए उससे ईर्ष्या करने लगता है. इस प्रकार किसी दूसरे से तुलना से बालक की / मनुष्य की स्वतंत्र पहचान भी समाप्त हो जाती है जबकि शिक्षा तो ऐसी हो जो सभी की विशिष्टता को उभारने व उसकी पहचान बनाने में मदद करती हो. अतः यह आवश्यक है कि शिक्षक को प्रत्येक बालक का अध्ययन करना होगा और पता लगाना होगा कि वह किस ढंग से पढ़ लिख रहा है.

शिक्षा पर विचार करने के लिए उन्होंने परीक्षा एवं उससे होने वाले डर पर भी चर्चा किया है. यहाँ डर से आशय है परीक्षा में पास – फेल का डर अर्थात दूसरों की तरह अच्छा न कर पाने का डर. वे कहते हैं कि क्या ऐसा संभव है कि परीक्षा हो ही न. क्या कोई तरीका नहीं है कि बच्चे की प्रगति का दिन प्रतिदिन ख्याल रखा जा सके और निश्चित किया जा सके कि उसकी रुचि क्या है. इस डर को उन्होंने सुरक्षा से भी जोड़ कर देखा है अर्थात बच्चों को यह अहसास कराना कि कोई उनका ख्याल रख रहा है, ध्यान दिया जा रहा है, उनकी परवाह की जा रही है तो उसे इस बात का डर ही नहीं होगा कि कोई उसे फेल करने के लिए परीक्षा ले रहा है. यदि बच्चे पर लगातार ध्यान दिया जाए, परवाह किया जाए तो परीक्षा लेने पर भी बच्चे सरलता से उत्तीर्ण हो सकते हैं. मुख्य है कि बच्चे पर लगातार ध्यान देना.

इसी तरह स्वतंत्रता एवं खुशी का अनुभव भी बच्चों को बेहतर ढंग से सीखने का अवसर देती है.

जे. कृष्णमूर्ति ने ‘प्रगति’ पर भी चिंतन किया है. आमतौर पर सभी लोग प्रगति का आशय यही समझते हैं कि हम बैलगाड़ी से जेट तक पहुँच गए हैं. निश्चित ही यह वैज्ञानिक प्रगति है लेकिन अन्य दिशाओं में क्या कोई प्रगति हुई है? वे सवाल उठाते हैं कि क्या युद्धों में कमी आ रही है? क्या लोग अधिक दयालु, अधिक विचारशील, और अधिक सौम्य हो रहे हैं? बतौर पाठक हम भी इस पर विचार कर सकते हैं कि वर्तमान में जिसे हम शिक्षा कह रहे हैं क्या वह भी इसके लिए जिम्मेदार है? यदि हाँ तो हम उसे शिक्षा क्यों कहें?

आदतों में बंध जाना भी विचारशील होने में बाधक है क्योंकि हम वह सब करते चलते हैं जिसे बड़ों को करते हुए देखते है. प्रतिदिन पूजा करने की आदत बना लेना इसी तरह की एक क्रिया है जो बतौर आदत हमारे जीवन में शामिल हो जाता है. जबकि शिक्षा में विचारशील होने के अवसर का होना जरूरी है.    

 

 

शिक्षा पर उनके विचारों को निम्नलिखित बिन्दुओं में रखने का प्रयास किया गया है-

·         दुनिया का सामना करने में मदद करे

·         संसार क्या है? प्रश्न का उत्तर खोजना भी शिक्षा के मायने हो सकता है.

·         समस्याओं का सामना करने के लिए शिक्षा मनुष्य को समर्थ बनाएं

·         जीवन का सामना करने, जीवन को समझने में मदद करने को सम्यक शिक्षा कहा है

·         भय को समझने में और उससे मुक्त होने में मदद करे. (चिंतन करना, अवलोकन करना) भय का एक कारण तुलना करना हो सकता है, यही तुलना ईर्ष्या को जन्म देती है. इससे उस व्यक्ति की विशिष्टता ख़त्म हो जाती है. ऐसी स्थिति में शिक्षक के लिए जरूरी है कि वह प्रत्येक के प्रति, व्यक्तिगत रूप से ध्यान दे.

·         विद्यालय में होने वाली तुलना को पुरी तरह समाप्त करना होगा, अंक और श्रेणी के प्रचलन को और अंततः परीक्षा के भय को पुरी तरह समाप्त करना होगा.

·         शिक्षित होने का अभिप्राय है कि आपने अपने समग्र अस्तित्व को, जीवन की सम्पूर्ण प्रक्रिया को, अपने आप को समझ लिया है.

·         वर्तमान शिक्षा व्यवस्था व्यक्ति को विचारहीन होने के लिए प्रशिक्षित करता है, विद्रोह करने, प्रश्न उठाने के लिए नहीं. यदि कभी संयोग से संशय की कोई तरंग उठाती भी है तो उसी समय किसी व्याख्या से उसे शांत कर दिया जाता है. इसे ही हम शिक्षण की प्रक्रिया समझते हैं.

·         किसी विद्यालय के लिए खास महत्व इस बात का होता है कि एक ऐसा परिवेश निर्मित किया जाए जहां भय न हो, जहां छात्रों को बाध्य न किया जाता हो या उन्हें धमकाया न जाता हो, उनकी आपस में तुलना न की जाती हो, ताकि वहाँ स्वतंत्रता बनी रहे. इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वहाँ छात्र जो चाहे करने के लिए स्वतंत्र है, इसका तात्पर्य यह है कि विकास करने की, समझ बढ़ाने की, विचार करने की  स्वतंत्रता मिले.

·         शिक्षा का कार्य यह है कि मन को संवेदनशील होने में, सतर्क होने में सहायता करे ताकि यह आदत  या परम्परा में बंधकर कार्यरत न रहे, ताकि वह किसी भी चीज का अभ्यस्त न हो जाए, ताकि यह सदैव और जीवंत रहे.

·         शिक्षा का कार्य यह समझने में हमारी मदद करना भी है कि मन किस प्रकार से काम करता है. समझने का मतलब यह नहीं कि शंकर, बुद्ध अथवा मार्क्स के अनुसार समझे बल्कि अपनी स्वयं की प्रज्ञा की रोशनी में समझना कि हमारा मन किस तरह से कार्य करता है. क्योंकि मन के कार्य करने का तरीका ही अनेक उपद्रवों का कारण है, यही अनेक युद्धों को जन्म देता है.

 

 

शिक्षा के उद्देश्य

जे. कृष्णमूर्ति हम सभी से यह अपेक्षा करते हैं कि हम स्वयं सोचें कि शिक्षा का क्या कार्य है? शिक्षा का क्या उद्देश्य है? यद्यपि अनेक विद्वानों-दार्शनिकों-लोगों ने इस पर काफी विचार-विमर्श किये हैं. वे मानते हैं कि अब तक की जो शिक्षा है वह संसार में न तो शांति ला पाई है और न ही वह सांस्कृतिक उत्थान ही कर पाई है. इस मायने में जे. कृष्णमूर्ति के अनुसार शिक्षा का यह उद्देश्य है कि उसका मुख्य कार्य संसार में शांति स्थापित करना व सांस्कृतिक उत्थान लाना है. वर्तमान शिक्षा पर नज़र डालते हुए वे कहते हैं-

“जब आप दुनिया में चारों तरफ नज़र डालते हैं तो देखते हैं कि शिक्षा असफल रही है क्योंकि इसने युद्धों को रोकने में मदद नहीं की है, न तो इसने संसार में शांति लाने में सहायता की है और न ही इसने मनुष्य को किसी प्रकार की समझ ही प्रदान की है. इसके विपरीत, हमारी समस्याओं में और अधिक वृद्धि हुई है, और अधिक विध्वंसकारी युद्ध हो रहे हैं तथा पहले से बड़े क्लेश पैदा हो रहे हैं.”

इससे प्रश्न उठाना वाजिब है कि हमें शिक्षित क्यों किया जाता है? क्या शिक्षा का कार्य सिर्फ इतना ही है कि हम कुछ प्रतियोगी परीक्षा पास कर लें और हमें नौकरी मिल जाए? या यह एक सर्वांगीण प्रक्रिया है?

यदि सर्वांगीण प्रक्रिया है तो फिर सवाल उठाना होगा कि सर्वांगीण शिक्षा क्या है? इसके मूलभूत तत्व क्या है? इसका उत्तर किसी वर्ग विशेष के साथ जुड़ कर नहीं बल्कि स्वतंत्र रूप से सोचना होगा. वे उल्लेख करते हैं कि अब तक किसी भी प्रकार की क्रान्ति ने, न ही संगठित धर्म ने  शांति लाने में समर्थ रही है. इसका उद्देश्य दो या अधिक राष्ट्रों के विरोध में विचारधारा को खड़ा करना भी न हो. यह तभी संभव होगा जब हम किसी विचारधारा या पद्धति पर निर्भर होने के बजाय स्वतंत्र रूप से सोचे कि शिक्षा का कार्य क्या है.

परीक्षाएं पास कर लेने या नौकरी प्राप्त कर लेने को शिक्षा का कार्य मान लेने में बड़ी बाधा यह है कि शिक्षा तो उसके बाद भी सतत हमारी चेतना में, अनेक गतिविधियों में निरंतर चलते रहती है. अतः अपने ही भीतर एक प्रकाश बनना शिक्षा का एक कार्य हो सकता है.

शिक्षा के कार्य को स्पष्ट करने के लिए कृष्णमूर्ति ने ‘समग्र क्रान्ति’ शब्द का उपयोग किया है. अर्थात क्रान्ति केवल आर्थिक या सामाजिक न हो बल्कि क्रान्ति ऐसा हो जो मनुष्य की चेतना, उसके जीवन एवं अस्तित्व के लिए हो. इसके लिए आवश्यक है कि मनुष्यों में एक तरह की गहरी समझ हो जो संसार में स्थाई शांति लाने में सक्षम होगी.

शिक्षा का एक अहम् कार्य है कि वह मनुष्य को संस्कारबद्धता से मुक्त करे. क्योंकि हम जिस समाज में रहते हैं उसमें उसके द्वारा संस्कारबद्ध हो जाते हैं. और हम अपनी समस्याओं का सामना एक हिन्दू या ईसाई या कुछ और बन कर करते हैं. अतः संस्कार मुक्त होकर ही समस्या का समाधान करना चाहिए. यद्यपि अधिकांश का यही सोचना है कि मन को संस्कार मुक्त करना संभव नहीं है. इसे तो केवल सुसंस्कारित किया जा सकता है.

कृष्णमूर्ति कहते हैं-

“हममें से अधिकांश इसी बारे में सोचा करते हैं कि सुधार कैसे करें, बेहतर कैसे बनें, किस तरह बदलें- हम बदलाव, सुधार, बेहतरी......... में ही लगे रहते हैं. परन्तु हम अपने आप से यह प्रश्न कभी नहीं पूछते कि मन के लिए सभी संस्कारों के बंधन से स्वयं को मुक्त कर पाना संभव है या नहीं, ताकि जीवन का तात्पर्य सिर्फ जीविकोपार्जन तक सीमित न होकर युद्ध और शांति की समस्या, परम सत्य से जुड़े प्रश्न ...... यह सब कुछ है.”

समस्या समाधान को भी वे दो तरह से देखते हैं एक तो समस्या का समाधान ढूँढना और दूसरा समस्या का सामना करना. वे इसके दूसरे पक्ष में विश्वास करते हैं. यदि मनुष्य समस्या का प्रत्यक्ष सामना करना सीख जाए तो उसे समस्या का समाधान ढूँढने की जरूरत ही नहीं होगी जबकि आमजन समस्या का हल ढूँढने में अपना समय लगाता है. इस प्रकार समस्या का प्रत्यक्ष सामना करने के योग्य बनाना शिक्षा का कार्य हो सकता है. इसे ‘क्या विचार करें’ के स्थान पर ‘कैसे विचार करें’ के अभ्यास से पाया जा सकता है.

और अंत में ‘ज्ञान और विशेषज्ञता, शीर्षक के अंतर्गत कृष्णमूर्ति यह प्रश्न उठाते हैं –

“शिक्षा प्रदान करने वाले और आध्यात्मिक ज्ञान का प्रसार करने वाले विश्वविद्यालय क्या कर रहे हैं? क्या वे हमारे हृदयों और मन मस्तिष्क में कोई आमूल क्रान्ति ला रहे हैं?  

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