शुक्रवार, 18 जनवरी 2019

शालाओं का अनुवीक्षण बनाम अकादमिक अनुवीक्षण


शालाओं का अनुवीक्षण बनाम अकादमिक अनुवीक्षण
भूमिका
किसी भी शाला या शालाओं का अनुवीक्षण तथा मूल्यांकन बच्चों के सीखने को सही दिशा देने के लिए एक जरुरी उपक्रम है. इससे न केवल यह पता चलता हें कि बच्चे सीख रहे हैं या नहीं बल्कि यह भी जानने में सहायक होता है कि शिक्षा के विभिन्न हितधारक अपनी-अपनी जिम्मेदारी किस हद तक पूरा कर पा रहे हैं तथा बच्चों की सीखने को अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए हमें भविष्य में किस प्रकार की योजना बनाने की आवश्यकता होगी अर्थात बच्चों के उपलब्धि (Performance), हितधारकों के उत्तरदायित्व व योजना निर्माण तीनों पक्षों के लिए शालाओं का अनुवीक्षण आवश्यक है. बच्चों की उपलब्धि जानने का एक अप्रत्यक्ष लाभ यह भी है कि इससे हम शिक्षकों की शिक्षण क्षमता का भी आकलन कर रहे होते हैं. इसी से हम यह जान सकते हैं कि शिक्षक अपनी शैक्षिक कार्य / अध्यापन कार्य का निर्वहन, प्रधान अध्यापक अपनी नेतृत्व क्षमता का निर्वहन किस हद तक सफलता पूर्वक कर पा रहे हैं. इससे हम भविष्य में शिक्षकों एवं प्रधान शिक्षकों के लिए क्षमातावर्धन की सारगर्भित योजना भी बना सकते हैं.  
वर्तमान में प्रचलित अनुवीक्षण
शाला की अनुवीक्षण की शुरुवात आमतौर पर शिक्षकों की उपस्थिति / अनुपस्थिति जानने से होती है. फिर बारी आती है अनुपस्थित शिक्षक के बारे में यह जानना कि शिक्षक किस कारण से अनुपस्थित है? क्या शाळा के काम से बाहर गया है या अपने निजी कारणों से? यदि निजी कारणों से अनुपस्थित है तो विधिवत अवकाश के लिए आवेदन दिया है या नहीं? अब बारी आती है शाला में / कक्षाओं में बच्चों की दर्ज संख्या की तुलना में उनकी उपस्थिति और अनुपस्थिति जानने का. अनुपस्थित बच्चों के बारे में शिक्षकों से सवाल-जवाब कि बच्चों की अनुपस्थिति के क्या कारण है. यहाँ यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि शिक्षक अनुपस्थित बच्चों की अनुपस्थिति के क्या-क्या कारण बताते हैं. शाला में बच्चों की उपस्थिति बढ़ाने बाबत बच्चों के अभिभावकों से नियमित मिलने, एस.एम.सी. की नियमित बैठक कराने जैसे निर्देशों के साथ अनुवीक्षण का यह खंड समाप्त होता है.
विद्यालयों में उपलब्ध भौतिक अधोसंरचना के बारे में जानकारी लेना भी अनुवीक्षण का महत्वपूर्ण भाग होता है. जिसमें शौचालय की स्थिति / स्वच्छता, पानी की उपलब्धता आदि को गिना जा सकता है और ये अनुवीक्षण जून-जुलाई के माह में यदि हो तो बच्चों को उपलब्ध कराए जाने वाली पाठ्य पुस्तकों की उपलब्धता की जानकारी लेना अवश्य हो सकता है.
आमतौर पर जिसे अकादमिक अनुवीक्षण कहा जाता है/ समझा जाता है उसमें कक्षा में बच्चों से कुछ सवाल करना शामिल होता है जिसमें कितने तक का पहाड़ा याद है? फलां का पहाड़ा सुनाओ, आप किस जिले में रहते हो? मुख्यमंत्री का नाम क्या है? राज्यपाल का नाम क्या है? आदि. इसके अलावा बच्चों से पाठ्य पुस्तक से किसी पैराग्राफ को पढ़ कर सुनाने के लिए कहना, गणित के कुछ सवाल ब्लेक बोर्ड पर बनवाना भी इस अनुवीक्षण में शामिल होता है. इसी के साथ शिक्षकों से यह जानकारी लेना कि पाठ्यक्रम कितना पूरा हुआ? कितना पूरा हो जाना था? आदि.
उपरोक्त तरह के अनुवीक्षण में एक प्रोफार्मा भरना जरुर शामिल होता है. जिसमे ज्यादातर जानकारी हाँ / नहीं में होते हैं. जैसे आकस्मिक निधि की राशि प्राप्त हुई है कि नहीं? एस.एम.सी. की बैठक नियमित होती है कि नहीं? बच्चों को माध्याह्न भोजन समय पर मिलता है कि नहीं? आदि.
प्रस्तावित अकादमिक अनुवीक्षण
ऊपर के पैराग्राफ में अब तक जितनी भी बाते हुई है उसका महत्व किसी शाला के अनुवीक्षण में अवश्य है लेकिन इसे पर्याप्त कहना थोड़ा मुश्किल है ख़ास कर अकादमिक अनुवीक्षण कहने में, क्योंकि अकादमिक अनुवीक्षण के लिए कक्षा अभ्यास का अवलोकन करना एक जरुरी उपक्रम होता हैं.  यहाँ हमें अकादमिक अनुवीक्षण को थोड़ा गहराई में समझना होगा. इसके लिए सबसे पहले हमें स्वयं से कुछ सवाल करने होंगे. जैसे-
·        स्कूल किन शैक्षिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए है?
·        इन शैक्षिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए किस प्रकार के कक्षा अभ्यास जरुरी होंगे?
·        किन-किन विषयों का कक्षा अभ्यास किस तरह के होंगे?
·        बच्चों का सीखना कैसे होता है? कैसे जाने कि बच्चों का सीखना हो रहा है?
·        कैसे पता करें कि कक्षा अभ्यास से शिक्षा के उद्देश्य पुरे हो रहे हैं?
क्या देखें-कैसे देखें
उपरोक्त प्रश्नों के आलोक में यहाँ हम कुछ उदाहरणों के साथ समझने का प्रयास करते हैं कि अकादमिक अनुवीक्षण में शाला का / किसी कक्षा का अवलोकन कैसे करें. यहाँ कक्षा अवलोकन के लिए एक जरुरी शर्त को भी ध्यान रखना होगा कि इसके लिए हमें कम से कम एक पुरी कक्षा का अवलोकन (40 मिनट / एक घंटे) तो करना ही होगा-
·        भाषा की कक्षा में स्वतंत्र चिंतन / अभिव्यक्ति जो मौखिक, लिखित या अन्य किसी माध्यम से हो, बच्चे कर पा रहे हैं. बच्चे कहानी, कविता को अपने शब्दों में अभिव्यक्त कर पा रहे हैं. पाठ में दिए प्रश्नों / अभ्यासों के उत्तर अपने शब्दों में स्वयं बनाते हैं / बना पा रहे हैं. कहानी में आए विभिन्न पात्रों के स्थान पर स्वयं को रख कर कल्पना कर पा रहे हैं. अपने शब्दों में अधूरी कहानी को आगे बढ़ा पा रहे हैं तथा यथा संभव व्याकरण (लिंग, वचन आदि) का सही उपयोग कर पा रहे हैं.
·        गणित की कक्षा में सभी बच्चे गणित की आधारभूत संक्रियाओं से परिचित हैं तथा स्वतंत्र रूप से हल कर पा रहे हैं. इबारती सवालों को तर्क के साथ हल कर पा रहे हैं. गणितीय समस्याओं को तर्क के साथ हल कर पा रहे हैं. उदाहरण के लिए किसी कमरे में टाइल्स लगानी हो तो किस आकार के कितने टाइल्स की जरुरत होगी? जैसी समस्याओं के बारे में सोच पाते हैं.  शिक्षक गणित की अवधारणाओं को स्पष्ट करने के लिए सहायक शिक्षण सामग्री का उपयोग करते हैं.
·        पर्यावरण अध्ययन एवं विज्ञान की कक्षाओं में बच्चे अवलोकन, वर्गीकरण, परिकल्पनाएं बनाने, प्रयोग करने, निष्कर्ष निकालने, खोज करने जैसे कौशलों में / पारंगत हैं / संलग्न हैं / शिक्षक बच्चों को इसके लिए अवसर उपलब्ध कराते हैं. बच्चे अपने गाँव / शहर / पानी / आवास आदि विषयवस्तुओं को सन्दर्भ में रखकर छोटे-छोटे परियोजना कार्य करते हैं / शिक्षक बच्चों से कराते हैं. क्या शिक्षक बच्चों में वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देते हैं?  सीखने में सहायक शिक्षण सामग्री का उपयोग होता है?
·        सामाजिक विज्ञान की कक्षाओं में बच्चे विभिन्न सामाजिक एवं प्राकृतिक घटनाओं के मध्य सम्बन्ध एवं प्रभाव देख पाते हैं. जैसे- धरातलीय संरचना का वर्षा एवं फसलों के साथ सम्बन्ध, विभिन्न प्रकार की उगाई जाने वाली फसलों का खानपान के साथ सम्बन्ध. विभिन्न प्रकार के मौसम / जलवायु का पहनावा के साथ सम्बन्ध. इसी तरह इतिहास में बच्चे समसामयिक घटनाओं का विश्लेषण कर पाते हैं. शिक्षक नक्शा, ग्लोब आदि सहायक शिक्षण सामग्री का उपयोग करते हैं.
·        अन्य महत्वपूर्ण अनुवीक्षण इस प्रकार हो सकते हैं- क्या शिक्षक बच्चों को आपस में, समूह में, व्यक्तिगत तौर पर सीखने का अवसर देते हैं? क्या बच्चों का बच्चों के साथ, शिक्षक का बच्चों के साथ अंतर्क्रिया ( Interaction) होते हैं? क्या बच्चे कक्षा में सवाल पूछते हैं? क्या बच्चों को स्व-अधिगम का अवसर मिलता है? क्या शिक्षक सभी बच्चों के साथ समान व्यवहार (लिंग-जाति-धर्म आधारित भेदभाव बिना) करते हैं? सभी बच्चों को सीखने का पर्याप्त अवसर मिलता है? क्या सभी बच्चों को अपनी बात रखने का अवसर मिलता है? क्या बच्चे पुस्तकालय का नियमित उपयोग करते हैं? क्या शाला में सप्ताह में / पंद्रह दिनों में / एक निश्चित अंतराल में अकादमिक चर्चा का आयोजन होता है? क्या शिक्षक इस बात पर विश्वास करते हैं कि सभी बच्चे सीख सकते हैं? क्या शिक्षक शिक्षा को दैनिक जीवन से जोड़ते हैं? क्या शिक्षक की पढ़ाई जाने वाली अवधारणाएं स्वयं में स्पष्ट है. क्या शिक्षक बच्चों के पूर्व ज्ञान को पढ़ाई जाने वाली विषयवस्तु से सम्बन्ध बनाते हैं? क्या शिक्षक अपनी सम्पूर्ण शिक्षण प्रक्रिया में संवैधानिक मूल्यों के विकास का ध्यान रखते हैं? आदि.
अनुवीक्षण का उपयोग (संकुल अकादमिक समन्वयक एवं सहायक / विकासखण्ड शिक्षा अधिकारी के सन्दर्भ में)
उपरोक्त तरह से किए गए किसी शाळा के अनुवीक्षण का अभियोजन क्या हो सकता है इस पर भी विचार किया जाना चाहिए. विशेष कर संकुल अकादमिक समन्वयकों एवं सहायक / विकासखण्ड शिक्षा अधिकारियों के सन्दर्भ में. उल्लेखनीय है कि संकुल स्तर पर एवं विकासखण्ड स्तर पर शिक्षा में गुणवत्ता लाने की जिम्मेदारी इन्हीं की होती है. इस सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण उद्देश्य तो यही बनता है कि वे इस अनुवीक्षण के माध्यम से शिक्षक प्रशिक्षणों एवं उनके उन्मुखीकरण के लिए कुछ मुद्दों का चयन कर सकते हैं. जैसे- शिक्षकों को विषयवार किन-किन विषयवस्तुओं पर प्रशिक्षण / उन्मुखीकरण किया जाना चाहिए? संकुल की अकादमिक बैठकों में चर्चा के लिए एजेंडा क्या हों? भाषा / गणित आदि विषयों में शिक्षकों के उन्मुखीकरण किस प्रकार हो. वे डाईट जैसी अकादमिक जिम्मेदारी वाली संस्थाओं को शिक्षक उन्मुखीकरण के लिए मार्गदर्शन भी कर सकते हैं जिससे कि वे वार्षिक कार्य योजना में उन मुद्दों को जगह दे सके. सबसे अहम् बात तो यह है कि संकुल समन्वयक एवं सहायक / विकासखंड शिक्षा अधिकारी स्वयं के क्षमतावर्धन के लिए आवश्यकताओं का चयन भी इस तरह के अनुवीक्षण से जरुरत की पहचान कर सकते हैं.      
निष्कर्ष
स्कूल / शिक्षा का सायास उद्देश्य यही है कि बच्चे व्यस्क समाज में पदार्पण करते समय एक ऐसी समाज की रचना में अपना योगदान दे सकें जिस समाज की कल्पना हमारे संविधान में विशेषकर संविधान की उद्देशिका में वर्णित है. बच्चे समाज में एक ऐसे सदस्य के रूप में अपनी पहचान बना सके जो तर्क को जीवन का आधार मानते हों / विश्वास करते हों. समाज में व्याप्त कुरूतियों / अंधविश्वासों के खिलाफ अपनी बात रखने में सक्षम हों. एक आदर्श नागरिक की तुलना में सवाल उठाने वाले सदस्य के तौर पर अपनी पहचान रखते हों. अतः हमें शाला का अनुवीक्षण करते समय इन बातों का ध्यान रखना होगा कि बच्चे विभिन्न विषयों एवं कक्षा प्रक्रिया के माध्यम से कितना तर्कशील एवं विवेकशील बन पा रहे हैं.







गुरुवार, 7 जनवरी 2016

क्रमशः --- सामाजिक संस्थान 
सामाजिक संस्थान को समझने के लिए कुछ संस्थानों का वर्णन नीचे दिया जा रहा है-
परिवार प्रत्यक्ष नातेदारी संबंधों से जुड़े व्यक्तियों का एक समूह है जिसके बड़े सदस्य बच्चों के पालन-पोषण का दायित्व लेते हैं.
परिवार को एक प्राकृतिक (नैसर्गिक) सामाजिक संस्थान माना गया है, क्योंकि यह सभी समाजों में प्रारम्भ में ही विद्यमान रहा है. किसी समाज का स्वरूप चाहे कैसा भी रहा हो उनमें परिवार-विवाह-नातेदारी सदैव से रहा है.  परिवार को एक सामाजिक संस्थान माने जाने के निम्नांकित विशेषताओं को रेखांकित किया जा सकता है-
  1.       एक संस्था का अन्य संस्थाओं से सम्बन्ध होना. परिवार जो कि एक निजी क्षेत्र है आर्थिक-सांस्कृतिक-राजनैतिक आदि सार्वजनिक संस्थाओं से सम्बन्ध रहा है.
  2. .      संस्थानों की तरह परिवार का भी एक कार्य व दायित्व होता है.
  3. .      किसी संस्थान (परिवार) का कार्य समाज की व्यवस्थाओं को बनाए रखने में मदद करता है. जैसे- परिवार में यदि महिलाएं घर का काम और पुरुष बाहर का कार्य करते हैं तो यह औद्योगिक समाज को बनाए रखने में मदद करता है.[1]-[2]
  4.       संस्थाओं के स्वरूपों में परिवर्तन होना. जैसे संयुक्त परिवार से एकल परिवार वाले समाज में परिवर्तन. कृषि आधारित अर्थ व्यवस्था तथा औद्योगिक अर्थ व्यवस्था वाले शहरीकरण वाले समाज में क्रमशः संयुक्त एवं एकल परिवार का होना.
  5.       संस्थान के पास शक्ति या सत्ता का होना. जैसे परिवार के मुखिया के द्वारा अपनी शक्ति या सत्ता का उपयोग करते हुए अन्य सदस्यों को कार्य सौंपना.

विवाह को एक सामाजिक संस्थान माने जाने के निम्नांकित विशेषताओं को चिह्नित किया जा सकता है-
विवाह दो वयस्क (पुरुष-स्त्री) व्यक्तियों के बीच लैंगिक संबंधों की सामाजिक स्वीकृति है.
  1. 1.      संस्थान की ही तरह विवाह के भी अनेक स्वरूप होते हैं. जैसे- एकल विवाह, बहुविवाह.
  2. 2.      विवाह को भी किसी संस्थान की तरह नियंत्रित करने के कुछ नियम होते हैं. जैसे- एकल विवाह में कोई पुरुष किसी समय में एक ही स्त्री से और कोई स्त्री एक ही पुरुष से विवाह कर सकते हैं.
  3. 3.      दूसरे विवाह की अनुमति तभी होगी जब पहले विवाह साथी से तलाक हो गया हो या मृत्यु.
  4. 4.      कुछ समाजों में / परिवारों में यह भी प्रथाएं होती है कि कौन किससे विवाह कर सकता है और किससे नहीं. जैसे एक ही गोत्र में विवाह करने की अनुमति का न होना.

(ग)  राजनीति एक सामाजिक संस्थान -
इसे सामाजिक संस्था के रूप में समझने में मुख्य रूप से दो शब्दों (संकल्पनाओं) पर ध्यान केन्द्रित किया जा सकता है एक – शक्ति और दूसरा – सत्ता. इसे निम्नांकित दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है-
1.      शक्ति या सत्ता व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के पास होता है जिसका उपयोग उन व्यक्ति या समूह के लिए होता है जिसके पास ये शक्ति / सत्ता नहीं होती.
2.      राजनैतिक दलों के पास अपने कार्यक्रमों को पूरे देश में लागू करने की शक्ति होती है. इसी तरह दल के अध्यक्ष के पास किसी सदस्य को दल से पृथक करने की शक्ति होती है.
3.      उपरोक्त तरह के सभी शक्तियों का उपयोग सत्ता के माध्यम से किया जाता है.
4.      संस्थान का एक उद्देश्य होता है. राजनैतिक दल अपने उद्देश्यों को विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से करता है.
5.      संस्थान की एक वैधता होती है. राजनीति में शक्ति का उपयोग सत्ता के माध्यम से करने से उसमें एक प्रकार की वैधता आ जाती है जिसे समाज में न्याय संगत माना जाता है. जिससे शक्ति को संस्थागत स्वरूप मिल जाता है.
6.      संस्थान की एक निश्चित संरचना तथा कार्य विधियाँ होती है. इस मायने में ‘राज्य’[3] की एक संरचना व कार्यविधियों को आसानी से चिह्नित किया जा सकता है.
7.      उपरोक्त कार्यविधियों व संरचना पर उस समूह की आस्था होती है जिससे समूह संचालित होता है क्योंकि यह एक वैध व्यवस्था होती है. 
धर्म को सामाजिक संस्थान के रूप में समझने के लिए कुछ तथ्यों को निम्नांकित रूपों में व्यवस्थित किया जा सकता है-
  • 1.      धर्म विश्व के सभी समाजों में विद्यमान है. यद्यपि विभिन्न समाजों में इसका स्वरूप भिन्न-भिन्न होता है.
  • 2.      किसी संस्थान की तरह विश्व की सभी धर्मों की कुछ सामान्य विशेषताएं होती हैं-

·         प्रतीक / प्रतीकों का समुच्चय
·         सम्मान / श्रद्धा
·         अनुष्ठान-समारोह
·         विश्वासकर्ताओं का समूह
  • 3    सभी धर्मों की एक रीति-रिवाज / प्रथाएं होती हैं.
  • 4.      धर्म का अन्य सामाजिक संस्थाओं के साथ सम्बन्ध होता है. धर्म का राजनीति से सम्बन्ध का एक उदाहरण यह है कि इतिहास में समय-समय पर सामाजिक व राजनैतिक परिवर्तन के लिए धार्मिक आन्दोलन हुए हैं.
  • 5.      धर्म के साथ व्यक्ति / व्यक्तियों के समूह का एक आस्था होता है.
  • 6.      किसी राज्य का धर्म / पंथ निरपेक्ष का होना या न होना भी राजनीति व धर्म के संबंधों को दर्शाता है.
  • 7.      मैक्स वेबर के अनुसार कैल्विनवाद  जो कि प्रोटेस्टेंट इसाई धर्म की एक शाखा है, ने पूंजीवाद के उद्भव व विकास को प्रभावित करता है. कैल्विनवाद के सिद्धांत में मितव्ययता से रहना शामिल है. जिसमे निवेश को पवित्र सिद्धांत माना गया है जो पूंजी उत्पन्न कर आर्थिक विकास पर प्रभाव डालता है.

शिक्षा जीवन पर्यंत चलने वाली एक प्रक्रिया है जिसमे औपचारिक एवं अनौपचारिक दोनों ही शिक्षा आती है. यहाँ सामाजिक संस्थान के रूप में शिक्षा को समझने के लिए औपचारिक शिक्षा को आधार बनाया गया है-
  • 1.      शिक्षा एक तरह से सामाजिक दक्षताएं प्राप्त करने का साधन है. जिसके कारण व्यक्ति को / समाज को इसकी आवश्यकता होती है जो प्रायः विश्व के सभी समाजों के लिए सत्य है.
  • 2.      व्यक्ति का समाजीकरण शिक्षा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य होता है.
  • 3.      सभी तरह के समाजों में एक मूल्य होता है.
  • 4.      शिक्षा की रचना एकरूपता, मानकीकृत व सार्वभौमिक मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए होती है. जैसे – विद्यालय में बच्चों की एक जैसी वर्दी का होना.
  • 5.      शिक्षा समाज में विशिष्ट व्यवसाय के लिए तैयार करती है एवं समाज के मूल्यों को आत्मसात करने के लिए तैयार करती है जो सामाजिक मानकों एवं आवश्यकताओं पर निर्भर होती है[4].
  • 6.      प्रकार्यवादियों के अनुसार शिक्षा सामाजिक संरचना को बनाए रखने तथा नवीनीकरण करने में मदद करती है.
  • 7.      शिक्षा समाज में स्तरीकरण के मुख्य अभिकर्ता के रूप में कार्य करती है. इसका असमान वितरण इसी स्तरीकरण का परिणाम है.
  • 8.      एक अच्छी शिक्षा के अवसर अनेक सामाजिक कारकों का परिणाम होता है.


सामाजिक संस्थाओं की विशेषताएं-
उपरोक्त सामाजिक संस्थाओं की विभिन्न विशेषताओं के आधार पर किसी सामाजिक संस्थान की विशेषताओं को निम्नांकित तरह से सूचीबद्ध किया जा सकता है-
  • 1.      संस्थान के उद्देश्य, कार्य व दायित्व होते है.
  • 2.      विभिन्न सामाजिक संस्थाओं के मध्य आपसी सम्बन्ध होता है
  • 3.      संस्था का मानक-आस्था-मूल्य होता है 
  • 4.      सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने में मददगार होता है.
  • 5.      संस्था का स्वरूप परिवर्तनशील होता है.
  • 6.      संस्था के पास एक शक्ति / सता विद्यमान होता है. नियंत्रण करने की शक्ति होती है.
  • 7.      नियमों / प्रथाएं होती है. इसे समाज में वैधता व स्वीकार्यता होती है, विश्वास होता है.
  • 8.      संस्था के प्रति समाज का सम्मान होता है.

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[1] प्रकार्यवादियों के अनुसार (Giddens 2001)
[2] यद्यपि यह पुरी तरह सत्य नहीं है. अध्ययन यह बताते हैं कि वस्त्र निर्यात जैसे समकालीन उद्योग में महिला श्रमिक बल काफी रहा है.
[3] प्रकार्यवादी दृष्टिकोण ‘राज्य’ को समाज के प्रतिनिधि के रूप में देखती है. संघर्षवादी दृष्टिकोण राज्य को प्रभावशाली अनुभागों के रूप में देखता है.
[4] एमिल दुर्खाइम, प्रकार्यवादी दृष्टिकोण.

क्रमशः आगे : सामाजिक संस्थान

क्रमशः आगे : सामाजिक संस्थान
राधे श्याम थवाईत
Social institutions are established or standardized patterns of rule-governed behavior. They include the family, education, religion, and economic and political institutions.

क्रमशः --- (फीडबैक के बाद)
सामाजिक संस्थान को समझने के लिए कुछ संस्थानों का वर्णन नीचे दिया जा रहा है-
परिवार प्रत्यक्ष नातेदारी संबंधों से जुड़े व्यक्तियों का एक समूह है जिसके बड़े सदस्य बच्चों के पालन-पोषण का दायित्व लेते हैं.
परिवार को एक प्राकृतिक (नैसर्गिक) सामाजिक संस्थान माना गया है, क्योंकि यह सभी समाजों में प्रारम्भ में ही विद्यमान रहा है. किसी समाज का स्वरूप चाहे कैसा भी रहा हो उनमें परिवार-विवाह-नातेदारी सदैव से रहा है.  परिवार को एक सामाजिक संस्थान माने जाने के निम्नांकित विशेषताओं को रेखांकित किया जा सकता है-
1.      एक संस्था का अन्य संस्थाओं से सम्बन्ध होना. परिवार जो कि एक निजी क्षेत्र है आर्थिक-सांस्कृतिक-राजनैतिक आदि सार्वजनिक संस्थाओं से सम्बन्ध रहा है.
2.      संस्थानों की तरह परिवार का भी एक कार्य व दायित्व होता है.
3.      किसी संस्थान (परिवार) का कार्य समाज की व्यवस्थाओं को बनाए रखने में मदद करता है. जैसे- परिवार में यदि महिलाएं घर का काम और पुरुष बाहर का कार्य करते हैं तो यह औद्योगिक समाज को बनाए रखने में मदद करता है.[1]-[2]
4.      संस्थाओं के स्वरूपों में परिवर्तन होना. जैसे संयुक्त परिवार से एकल परिवार वाले समाज में परिवर्तन. कृषि आधारित अर्थ व्यवस्था तथा औद्योगिक अर्थ व्यवस्था वाले शहरीकरण वाले समाज में क्रमशः संयुक्त एवं एकल परिवार का होना.
5.      संस्थान के पास शक्ति या सत्ता का होना. जैसे परिवार के मुखिया के द्वारा अपनी शक्ति या सत्ता का उपयोग करते हुए अन्य सदस्यों को कार्य सौंपना.
विवाह को एक सामाजिक संस्थान माने जाने के निम्नांकित विशेषताओं को चिह्नित किया जा सकता है-
विवाह दो वयस्क (पुरुष-स्त्री) व्यक्तियों के बीच लैंगिक संबंधों की सामाजिक स्वीकृति है.
1.      संस्थान की ही तरह विवाह के भी अनेक स्वरूप होते हैं. जैसे- एकल विवाह, बहुविवाह.
2.      विवाह को भी किसी संस्थान की तरह नियंत्रित करने के कुछ नियम होते हैं. जैसे- एकल विवाह में कोई पुरुष किसी समय में एक ही स्त्री से और कोई स्त्री एक ही पुरुष से विवाह कर सकते हैं.
3.      दूसरे विवाह की अनुमति तभी होगी जब पहले विवाह साथी से तलाक हो गया हो या मृत्यु.
4.      कुछ समाजों में / परिवारों में यह भी प्रथाएं होती है कि कौन किससे विवाह कर सकता है और किससे नहीं. जैसे एक ही गोत्र में विवाह करने की अनुमति का न होना.
(ग)  राजनीति एक सामाजिक संस्थान -
इसे सामाजिक संस्था के रूप में समझने में मुख्य रूप से दो शब्दों (संकल्पनाओं) पर ध्यान केन्द्रित किया जा सकता है एक – शक्ति और दूसरा – सत्ता. इसे निम्नांकित दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है-
1.      शक्ति या सत्ता व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के पास होता है जिसका उपयोग उन व्यक्ति या समूह के लिए होता है जिसके पास ये शक्ति / सत्ता नहीं होती.
2.      राजनैतिक दलों के पास अपने कार्यक्रमों को पूरे देश में लागू करने की शक्ति होती है. इसी तरह दल के अध्यक्ष के पास किसी सदस्य को दल से पृथक करने की शक्ति होती है.
3.      उपरोक्त तरह के सभी शक्तियों का उपयोग सत्ता के माध्यम से किया जाता है.
4.      संस्थान का एक उद्देश्य होता है. राजनैतिक दल अपने उद्देश्यों को विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से करता है.
5.      संस्थान की एक वैधता होती है. राजनीति में शक्ति का उपयोग सत्ता के माध्यम से करने से उसमें एक प्रकार की वैधता आ जाती है जिसे समाज में न्याय संगत माना जाता है. जिससे शक्ति को संस्थागत स्वरूप मिल जाता है.
6.      संस्थान की एक निश्चित संरचना तथा कार्य विधियाँ होती है. इस मायने में ‘राज्य’[3] की एक संरचना व कार्यविधियों को आसानी से चिह्नित किया जा सकता है.
7.      उपरोक्त कार्यविधियों व संरचना पर उस समूह की आस्था होती है जिससे समूह संचालित होता है क्योंकि यह एक वैध व्यवस्था होती है. 
धर्म को सामाजिक संस्थान के रूप में समझने के लिए कुछ तथ्यों को निम्नांकित रूपों में व्यवस्थित किया जा सकता है-
1.      धर्म विश्व के सभी समाजों में विद्यमान है. यद्यपि विभिन्न समाजों में इसका स्वरूप भिन्न-भिन्न होता है.
2.      किसी संस्थान की तरह विश्व की सभी धर्मों की कुछ सामान्य विशेषताएं होती हैं-
·         प्रतीक / प्रतीकों का समुच्चय
·         सम्मान / श्रद्धा
·         अनुष्ठान-समारोह
·         विश्वासकर्ताओं का समूह
3.      सभी धर्मों की एक रीति-रिवाज / प्रथाएं होती हैं.
4.      धर्म का अन्य सामाजिक संस्थाओं के साथ सम्बन्ध होता है. धर्म का राजनीति से सम्बन्ध का एक उदाहरण यह है कि इतिहास में समय-समय पर सामाजिक व राजनैतिक परिवर्तन के लिए धार्मिक आन्दोलन हुए हैं.
5.      धर्म के साथ व्यक्ति / व्यक्तियों के समूह का एक आस्था होता है.
6.      किसी राज्य का धर्म / पंथ निरपेक्ष का होना या न होना भी राजनीति व धर्म के संबंधों को दर्शाता है.
7.      मैक्स वेबर के अनुसार कैल्विनवाद  जो कि प्रोटेस्टेंट इसाई धर्म की एक शाखा है, ने पूंजीवाद के उद्भव व विकास को प्रभावित करता है. कैल्विनवाद के सिद्धांत में मितव्ययता से रहना शामिल है. जिसमे निवेश को पवित्र सिद्धांत माना गया है जो पूंजी उत्पन्न कर आर्थिक विकास पर प्रभाव डालता है.
शिक्षा जीवन पर्यंत चलने वाली एक प्रक्रिया है जिसमे औपचारिक एवं अनौपचारिक दोनों ही शिक्षा आती है. यहाँ सामाजिक संस्थान के रूप में शिक्षा को समझने के लिए औपचारिक शिक्षा को आधार बनाया गया है-
1.      शिक्षा एक तरह से सामाजिक दक्षताएं प्राप्त करने का साधन है. जिसके कारण व्यक्ति को / समाज को इसकी आवश्यकता होती है जो प्रायः विश्व के सभी समाजों के लिए सत्य है.
2.      व्यक्ति का समाजीकरण शिक्षा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य होता है.
3.      सभी तरह के समाजों में एक मूल्य होता है.
4.      शिक्षा की रचना एकरूपता, मानकीकृत व सार्वभौमिक मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए होती है. जैसे – विद्यालय में बच्चों की एक जैसी वर्दी का होना.
5.      शिक्षा समाज में विशिष्ट व्यवसाय के लिए तैयार करती है एवं समाज के मूल्यों को आत्मसात करने के लिए तैयार करती है जो सामाजिक मानकों एवं आवश्यकताओं पर निर्भर होती है[4].
6.      प्रकार्यवादियों के अनुसार शिक्षा सामाजिक संरचना को बनाए रखने तथा नवीनीकरण करने में मदद करती है.
7.      शिक्षा समाज में स्तरीकरण के मुख्य अभिकर्ता के रूप में कार्य करती है. इसका असमान वितरण इसी स्तरीकरण का परिणाम है.
8.      एक अच्छी शिक्षा के अवसर अनेक सामाजिक कारकों का परिणाम होता है.




उपरोक्त सामाजिक संस्थाओं की विभिन्न विशेषताओं के आधार पर किसी सामाजिक संस्थान की विशेषताओं को निम्नांकित तरह से सूचीबद्ध किया जा सकता है-
1.      संस्थान के उद्देश्य, कार्य व दायित्व होते है.
2.      विभिन्न सामाजिक संस्थाओं के मध्य आपसी सम्बन्ध होता है
3.      संस्था का मानक-आस्था-मूल्य होता है 
4.      सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने में मददगार होता है.
5.      संस्था का स्वरूप परिवर्तनशील होता है.
6.      संस्था के पास एक शक्ति / सता विद्यमान होता है. नियंत्रण करने की शक्ति होती है.
7.      नियमों / प्रथाएं होती है. इसे समाज में वैधता व स्वीकार्यता होती है, विश्वास होता है.
8.      संस्था के प्रति समाज का सम्मान होता है.
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[1] प्रकार्यवादियों के अनुसार (Giddens 2001)
[2] यद्यपि यह पुरी तरह सत्य नहीं है. अध्ययन यह बताते हैं कि वस्त्र निर्यात जैसे समकालीन उद्योग में महिला श्रमिक बल काफी रहा है.
[3] प्रकार्यवादी दृष्टिकोण ‘राज्य’ को समाज के प्रतिनिधि के रूप में देखती है. संघर्षवादी दृष्टिकोण राज्य को प्रभावशाली अनुभागों के रूप में देखता है.
[4] एमिल दुर्खाइम, प्रकार्यवादी दृष्टिकोण.